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बुधवार, 13 मार्च 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (क) वन्दना (३) ^^राष्ट्र-वन्दना^^ (विराट वर्णन)




राष्ट्र, ‘समष्टि-ब्रह्म’ तू, पूज्य जैसे ईश !

तुझको कोटि प्रणाम हैं, विनत झुका कर शीश ||

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‘भौगोलिक परिवेश’ है, सुन्दर ‘तेरा शरीर’ |

नदियाँ ‘रक्त प्रवाहिनी’, ‘रुधिर’ सुपावन नीर ||

‘वायु’ तेरे ‘प्राण’ हैं, ‘पवन’  तेरी साँस |

संस्कृति ‘तेरी आत्मा’, मय ‘आस्था-विशवास’ ||

‘वैचारिक थाती’ है ‘मन’, ‘मस्तक तेरा’ गिरीश !

तुझको कोटि प्रणाम हैं, विनत झुका कर शीश ||१||



फलदायी है वरद है, तेरा रूप विराट |

मन में ‘आशा-ज्योति’ भर, ‘अन्धकार को छाँट ||

‘जगद्गुरु’ तू रहा है, मेरे भारत देश !

तूने दिये अतीत में, जग को नव संदेश ||

ज्यों ‘रजनी’ को दे सुखद, ‘धवल कान्ति’ रजनीश |

 तुझको कोटि प्रणाम हैं, विनत झुका कर शीश ||२||



हो कर ‘शुद्ध हृदय-मन’, ‘अहंकार’ को मेट |

अर्पित सेवा में तेरी, यह ‘काव्य की भेंट ||

‘तेरे प्रेरण’ से भरे ,’मेरे मुक्त विचार’ |

जन जन में ये कर सकें, ऊर्जा’ का संचार !!

दो “प्रसून” को अब प्रभु, अपना यह आशीष !

तुझको कोटि प्रणाम हैं, विनत झुका कर शीश ||३||



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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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