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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य)(झ)ऊँचे रिश्ते ‘प्यार’ के | (५)ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे ! (प्रेम का रूप-एक यथार्थ) !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

(प्रसाद गुणीय-शान्तरसीय गीत)
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


’प्यार के नील गगन’ में ‘पंछी’-
ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे !
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!           
चलो बचायें, ‘तितली-भँवरे’ |
कोई इनके ‘पर’ मत कतरे ||
‘स्वर्ग’ हमारी ‘धरा’ पे उतरे-     
‘परी-लोक मधुवन का’ सँवरे ||
महके, ‘मीठी महक’ से, सुन्दर-
‘भावों का उद्यान’ रे !!
’प्यार के नील गगन’ में ‘पंछी’-
ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे !!१!!
 
बड़ा ‘भरोसा’ है ‘छल-बल’ का |
‘सारा जग’, पूजक ‘तन-बल’ का ||
कोई ‘अकेला’ ऐंठा, कोई-
‘गर्व-दर्प’ करता ‘दल-बल’ का ||
नश्वर’ है सब, ‘तथ्य’ भूल कर-
है कितना अभिमान रे !!
’प्यार के नील गगन’ में ‘पंछी’-
ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे !!२!!


‘कोई डूबा ‘रूप-कूप’में |
कोई झुलसा, ‘मदन-धूप’ में ||
कोई ‘भेद के जाल’ में उलझा-
अन्तर करता, ‘रंक-भूप’ में ||
‘ईश्वरीय सत्ता’ से ‘मानव’-
है कितना ‘अनजान’ रे !!
’प्यार के नील गगन’ में ‘पंछी’-
ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे !!३!!

‘चेहरे की लाली’ विलुप्त है |
‘सत्य-बुद्धि का बल’ भी लुप्त है ||
‘विवेचना से हीन तर्क’ है-
‘साहस, शौर्य, ओज’ सुप्त है ||
कौन बचाये, ‘तची धूप’ से-   
टूटे हुये ‘वितान’ रे !!
’प्यार के नील गगन’ में ‘पंछी’-
ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे !!४!!

‘हाव-भाव’ में है ‘बेशर्मी’ |
‘वाणी’ में ‘गुर्राहट-गर्मी’ ||
‘आचरणों’ में, ‘व्यवहारों’ में-
नहीं तनिक भी ‘ठण्डक-नर्मी’ ||
‘मन’ में ‘बर्बरता’, ‘होठों’ पर-
‘थकी-बुझी मुस्कान’ रे !!
’प्यार के नील गगन’ में ‘पंछी’-
ऊँची भरें ‘उड़ान’ रे !!५!!


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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