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सोमवार, 29 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (12) दिगम्बरा रति (ख) नग्न कचनार

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

परिवर्तन के देखिये, बड़े निराले ढंग |
दाँव-पेच से कट रही, मर्यादा की पतंग ||
हुई प्रदूषित-विषैली, स्वाति-नखत-जल-धार |
प्रेमी-चातक पी इसे, है मन का बीमार ||
संयम के वन-मोर को, आने लगती आँच |
पंख उठा कर मोरनी, रति की उठती नाच  ||
यौन की कामी-क्रान्ति से, बागी हुआ अनंग |
दाँव-पेच से  कट रहीमर्यादा  की पतंग ||1||


सोई-सोई काम की, रही कामना जाग |
जैसे घन के नीर में, लगी तड़ित की आग ||
वडवाग्नि सी वासना, जली, हुआ, यह हाल |
इच्छाओं की झील में, आने लगा उबाल ||
ललनायें हैं निर्वसन, हुये देख हम दंग |
दाँव-पेच से कट रही, मर्यादा की पतंग ||2||
बदलावों की आँधियों, से आया पतझार |
वस्त्रों के पत्ते झरे, हुई नग्न कचनार ||
वसन पहनना हो गया, है मानो बेकार |
नज़र चुरा कर देखता, है यौवन सुकुमार ||
उभरे यौवन-चाप सब, कपड़े ऐसे तंग |
दाँव-पेच से कट रही, मर्यादा की पतंग ||3||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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