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मंगलवार, 25 मार्च 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (2) सरस्वती-वन्दना (ख)रस-याचना | (ii)’हास्य-रस’ की ‘धार’


(सारे चित्र ''गूगल-खोज' से साभार) 

मित्रों ! इस काव्य-पुस्तक में प्रत्येक वन्दना-सर्ग में कुछ रचनायें परिवर्धित की हैं ताकि उस विषय में सभी पहलू सामने आ जाएँ -सारे दार्शनिक पक्ष उभर कर आयें ! आप का स्वागत है आप की शुभ कामना के पिपासा है  | आप के मन में सरस्वती मुझे मार्ग-दर्शन देगी !! 
आज पुन:उन रचनाओं के साथ आप की सेवा में उपस्थित हूँ, जों बाद में बढ़ाई गयी हैं !
वास्तव में ये रचनायें शीर्षक में वर्णित रस का प्रदर्शन न् कर के, उन रसों के वान्छित स्वरूप की माता से कामना करने के भाव से हैं ! 


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‘मनोमलिनता’-‘बोझ’ से, व्याकुल है संसार |
माता ! लदे ‘तनाव’ का, हर लो सारा ‘भार’ !!
सुकृत, सुधारक, सुधारस-सिद्ध सलोने ‘हास’ |
सुमति—सुदाता, गुदगुदे, मन का करें विकास !!
‘दाने’ यथा ‘अनार’ के, मीठे सरस-सुस्वाद |
भरें ह्रदय में ‘ज्ञान-रस’, जिन में हो न ‘विवाद’ !!
‘पूर्णतया’ वे ‘स्वस्थ’ हों, जो मन के ‘बीमार’ !
माता ! लदे ‘तनाव’ का, हर लो सारा ‘भार’ !!१!!


सुन्दर रोचक व्यंग्य हों, हों ‘कटुता’ से दूर !!
‘अन्तर्मन’ को कोंचते, हों न तनिक भी ‘क्रूर’ !!
‘हास्य’ हों ‘उथले’ नहीं, और न हों ‘अश्लील’ !
जो ‘तलछट’ को हिला कर, मलिन करें ‘मन-झील’ !!
‘पीड़ित’ मन में झर उठे, ‘हास्य-रस’ की ‘धार’ !
माता ! लदे ‘तनाव’ का, हर लो सारा ‘भार’ !!२!!


‘पीड़ाओं’ का ‘तम’ हरें, रचें ‘प्रफुल्ल विहान’ !
‘प्राचि-किरण’ सी होठ पर, थिरक उठे ‘मुस्कान’ !!
हो सब का ‘कल्याण’ औ, हो न तनिक कम ‘क्षेम’!|
हँसें परस्पर सभी यों, बढ़े ‘ह्रदय’ में ‘प्रेम’ !!


‘जग’ को रखो ‘प्रसन्न’ माँ !, तुम करके ‘उपकार’ !
माता ! लदे ‘तनाव’ का, हर लो सारा ‘भार’ !!३!!




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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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