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शनिवार, 6 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (8) दहशत (ग) झुलसे अनुराग

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

जग में क्यों फैला हुआ, है दुर्दम आतंक’ |
मानवता की गोद’ में, है आतंक कलंक’ ||
कुछ देशों इस विश्व में, नहींप्रेम का ज्ञा|
कैसे रहें पड़ोस में, हैं इस से अनजान ||
शासन की ‘चाहत’ बुरी, या धरती का लोभ’ |
भोली जनता के हृदय, में भर देता क्षोभ ||
‘ह्रदय-गगनमें खिन्न है, ‘राहू’-ग्रसा मयंक’ |
मानवता की गोद’ में, है आतंक कलंक’ ||||


‘दहशत’ की इस आगमें, जले भावना-बाग’ |
स्नेह-सुमनपजरे हुए, झुलस गये अनुराग’ ||
कितने भँवरे भाव के’, जले हों गये ‘राख’ |
और कामना-तितलियों,’ के झुलसे हैं पाँख’ ||
लगता ज्वालामुखीसे, झरी आग की पंक’ |
मानवता की गोद’ में, है आतंक कलंक’ ||||
सत्तावादी सोचने, हरा सभी का हर्ष’ |
इस से पीड़ित है नहीं, केवल भारतवर्ष ||
अमेरिका या अरब या, रूस, चीन, जापान ||
इस के हुये शिकार सब, खो कर अपनी ‘शान’ ||
इस दुनियाँ में अब कहाँ, कौन रहे ‘निश्शंक’?|
मानवता की गोद’ में, है आतंक कलंक’ ||||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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