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बुधवार, 17 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (झ) दिगम्बरा रति (२)नग्न कचनार


'नग्नता' उस युग की मजबूरी थी, जब वस्त्रों की खोज न हो सकी थी | लज्जा आदि मानसिक गुणों का विकास नहीं हुआ था और 'पशुता' के करीब यह अवस्था थी | स्त्री के मामले में 'शक्तिवाद' ही था केवल | 'आधुनिकता' 'यौन-स्वेच्छाचार' ही तो नहीं ! घिसे पिटे आडम्बर- पाखंडों का विरोध तो करना नहीं चाहते, उलटे झूठी मिथ्या 'यौन-क्रान्ति' के नाम पर 'नग्नवाद' के पीछे 'पशु-दौड़'  की होड़ लग गयी है |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार ! चित्र 'विषय-वस्तु' के अनुकूल हैं)    

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‘परिवर्तन’  के  देखिये,  बड़े  निराले ढंग |
‘दाँव-पेच’ से कट रही, ‘मर्यादा की पतंग’ ||

 
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हुई  प्रदूषित  विषैली,  ‘स्वाति-नखत-जल-धार’ |
‘प्रेम का चातक’ पी  इसे, है  ‘मन का बीमार’ ||
‘संयम’ के ‘वन-मोर’ को, आने  लगी है ‘आँच’ |
‘पंख’ उठा कर ‘मोरनी, रति  की’ रही है नाच  ||
‘यौन की कामी क्रान्ति’ से, ‘बागी’ हुआ ‘अनंग’ |
‘दाँव-पेच’ से  कट रही,  ‘मर्यादा  की पतंग’ ||१||


सोई  सोई  ‘काम’  की,  रही  ‘कामना’  जाग |
जैसे ‘घन के नीर’ में,  लगी ‘तड़ित की  आग’ ||
‘वडवाग्नि की वासना’, जली, हुआ,  यह  हाल’ |
‘इच्छाओं की झील’  में,  आने  लगा  ‘उबाल’ ||
‘ललनायें’  हैं  निर्वसन,  हुये  देख  हम  दंग |
‘दाँव-पेच’ से  कट रही,  ‘मर्यादा  की पतंग’ ||२||


‘बदलावों  की  आँधियों’,  से  आया  ‘पतझार’ |
‘वस्त्रों  के पत्ते’  झरे, हुई  ‘नग्न’  ‘कचनार’ ||
‘वसन’  पहनना  तो  हुआ,  है  देखो  बेकार |
‘नज़र चुरा कर’  देखता,  है  ‘यौवन सुकुमार’ ||
उभरे  ‘यौवन-चाप’  सब,  वसन  हुये यों  तंग |
‘दाँव-पेच’ से  कट रही,  ‘मर्यादा  की पतंग’ ||३||



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प्रियादरणीय मित्र जन, 
कल से इस ब्लॉग में नित्य एक रचना इस संकलन में प्रबंधित तथा अप्रबन्धित एक रचना एक एक दिन छोड़ कर 'प्रसून', 'गज़ल-कुञ्ज'और 'शंख-नाद' आदि ब्लॉगों में प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा | ये रचनाएँ सम- सामयिक होंगीं |   

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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