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शुक्रवार, 29 जून 2012

शंख-नाद (एक ओज-गुणीय काव्य) (अ)वन्दना -(३) गुरु-वन्दना -- हे गुरु! ज्ञान बिखेरो जग में

 

हे गुरु !ज्ञान बिखेरो जग में !

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
  

उपदेशक  माया में लिपटे |

ज्ञान की चादर में सिलबटें ||

चिंतन, मनन संकुचित कितने !

बोध-मन्त्र हैं सिकुड़े, सिमटे ||

मानव के मन की पाटी में -

'प्रेरण'-शब्द उकेरो जग में !!

हे गुरु ज्ञान बिखेरो जग में!!१!! 

         

कितने लोभी धर्म-प्रचारक !

धन से बिके हैं आज विचारक ||

व्यवसाई हो गये हैं देखो-

इस सामाज के कई सुधारक ||

शंख बजा कर,अलख जगाकर -

सोये हुओं को टेरो जग में ||

हे गुरु ज्ञान बिखेरो जग में !!२!!

    

तुम "प्रसून"की गुहार सुन् लो|

गुरुवर,मन की पुकार सुन् लो !!

बिगड़ाहै परिवेश जगत् का-

कर दो थोड़ा सुधार सुन् लो !!

वशिष्ठ,कौटिल्य,कबीर, गोरख!

मन्त्र मोहिनी फेरो जग में ||

हे गुरु ज्ञान बिखेरो जग में !!३!!

 
    



About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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