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शनिवार, 30 अगस्त 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (च) व्यक्ति ‘भावना’ से जुड़े !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


तनिक बैठ सोचिये, ‘ध्यान’ लगा कर आज !
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ !!
 ‘मानवता; का ‘धर्म’ औ, आपस की ‘अनुरक्ति’ |
‘प्रेम’ परस्पर हो अगर, बढ़े ‘समाजी शक्ति’ ||
‘शिथिल हुई क्यों  ‘एकता, की ‘संयोजक डोर’ ?
‘जहाँ-तहाँ’ क्यों पनपते, हैं ‘कर्मों के चोर’ ??
बिना ‘कर्म’ ‘सुख’ भोगते, कुछ तो आये ‘लाज’ !
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ ||१||


देश बड़ा है ’धर्म’ से, इसमें कुछ न ‘असत्य’ |
रहें ‘समर्पित’ देश को, ‘अध्यात्म’ के ‘कृत्य’ ||
लोगों को समझाइये, यों समाज का ‘धर्म’ |
केवल समाज के लिये, हैं ‘मानव’ के ‘कर्म’ ||
‘समाज-चिन्तन’ मुख्य है, गौण ‘तख्त औ ताज़’ |
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ ||२||


‘भेद-भावनाएँ’ मिटें, जगे ‘प्रेम का भाव’ |
बचे डूबने से तभी, ‘संगठना की नाव’ ||
‘स्वार्थ-लिप्सा’ से बचें, यदि समाज के लोग |
हो सकते हैं दूर तब, ‘द्वन्द-कलह’ के ‘रोग’ ||
‘गरिमा’ भारत की बचे, जिस पर हमको ‘नाज़’ |
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ ||३||


About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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