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शनिवार, 21 दिसंबर 2013

नयी करवट (दोहा-ग़ज़लों पर एक काव्य )(६)ढोल की पोल(क)रँगे सियार


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बिकता ‘हरि का नाम’ है, जा कर ले लो मोल !
ज़ोर ज़ोर से बज रहे, बड़े ‘धर्म के ढोल’ ||
‘पिया’ की ‘मस्ती’ है नहीं, करते नकली कैफ़ |
इनके ‘आस्था-चादरों’, में हैं कितने ‘झोल’ !!


फ़िल्मी धुन में रँगे हैं, मन पे करते ‘चोट’ |
कब्बाली या कीर्तन, के ‘आकर्षक बोल’ ||
‘रूप-सुधा’ को तक रहे, ‘काम-वासना-दास’ |
कैसे इन से ‘योग’ हो, ये ‘ढंग’ रहे टटोल ||

इनकी सारी असलियत, सब जायेंगे जान |
मियाँ एक दिन खुलेगी, सब की ऐसी ‘पोल’ ||
भैया डंडा ठोक कर, कहते आज “प्रसून” |
सच क्या है, क्या झूठ है, इसको ढंग से तोल !!


शब्द-सहयोग -
कैफ़=रूहानियत की मस्ती |  झोल=सिकुड़नें 
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 मेरे ब्लॉग 'प्रसून' पर 'घनाक्षरी-वाटिका' पंचम कुञ्ज (गीता-गुण-गान) में आप का स्वागत है !   

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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