आज गाँव गाँव आंचलिक लोक भाषा(बोली) के स्थान पर खड़ीबोली का प्रचलन है यानी नागरी हिन्दी का व्यापक विकास हो चुका है | प्रचलित भाषा ही उपयोगी होती है | उसे नयी संतति स्वीकार करती है | लीजिये होली के माहौल में रस-भीना यह दूसरा लोक-गीत खड़ीबोली का !
(अधिकाँश चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
आओ मुझ पर डालो ‘प्यार का रंग’ पिया !
तुम चलकर होली खेलो मेरे संग पिया !!
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‘चाहत’
में देखो ‘प्रियतम’, ‘तूफ़ान’ उठा !
‘मन-सागर’ में ‘ज्वार सा विकल उफान’ उठा ||
इसे रोकने में ‘मर्यादा’ बेबस है |
चलो ‘मिलन’ का कर लें कोई ढंग पिया !
‘अंगड़ाई’ ले जागा हुआ ‘अनंग’ पिया |
तुम चलकर होली खेलो मेरे संग पिया !!१!!
हटो पिया ये सारी सखियाँ देख रहीं |
तानें जिनमें, ऐसी नज़रें फेक रहीं ||
‘प्रेम-केलि’ में लगता ‘बड़े अनाड़ी’ हो |
बीच डगर में मुझको करो न तंग पिया !
रोको अपने मन में उठी ‘तरंग’ पिया !
तुम चलकर होली खेलो मेरे संग पिया !!२!!
दिया तुम्हीं ने सजनी ‘नेह-निमन्त्रण’ है |
अब मुश्किल है देखो, थका ‘नियन्त्रण’ है ||
सजनी मेरी बात मान लों रूठो मत !
चलो उड़ायें ‘प्रीति की कहीं पतंग’ पिया !
गलियों में बाधक कितना हुड़दंग पिया !
तुम चलकर होली खेलो मेरे संग पिया !!३!!
लों, हम हारे और पिया तुम जीत गये |
हुआ ‘समर्पण’, ‘मनुहारी पल’ बीत गये ||
‘सोच’, ‘विवादों’ में क्यों प्रियतम उलझाई !
‘प्रेम की शान्त झील’ में उठी ‘तरंग’ पिया |
कोई जीते हारे ‘प्रीति की जंग’ पिया |
तुम चलकर होली खेलो मेरे संग पिया !!४!!
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