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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (8) दहशत (ख)‘चील झपट्टा’-‘बिच्छू डंक’

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


मृग-छौने के अंक में, चुभता बिच्छू-डंक |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृतिको आतंक !!
आतंकोंसे काँपते, हैं ‘जनता’ के ‘पैर’ |
जैसे कोई मेमना’, ‘वधिकसे मांगे खैर ||
जनता भय के तालमें, रही इस तरह तैर |
जैसे मछली को हुआ, ‘मगरमच्छसे वैर ||
स्वतंत्रता’ के ‘चाँद’ के, माथेलगा कलंक’ |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृतिको आतंक!!!!


आतंकी पनपे यहाँ, ‘कंटालों’ में ‘शूल’ |
छल-बलसे हफ्ता’ तथा, ‘चन्दा रहे वसूल ||
शक्ति-प्रदर्शनके लिये, रते अत्याचार |
निर्दोषों को बेवजह, रहे निरन्तर मार ||
मन की गलियोंमें भरी, है हिंसा की पंक’ |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृतिको आतंक!!२!!


जिसका डण्डासबल है, उसको  पूरी छूट |
जिस पर ‘भृकुटी’ तन गयी, ले वह उसको लूट ||
ज्यों कपोतपर चीलने, निठुर’ लगाई ‘घात’ |
हिंसाके यों हो रहे, जन जन में ‘उत्पात’ ||
लोग ‘शक्तिसे हैं धनी, ‘मानवतासे ‘रंक’ |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृतिको आतंक!!३!!

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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