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शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य)-(र)-चलो बचाएं देश को !! (रूपक-गीत) (२) !!!आओ बचा लें देश को!!!

सारे चित्र गूगल खोज से साभार उद्धृत !




       
      (२)



!!!आओ बचा लें देश को!!!
 


!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!



है इसका‘तन’दुखने लगा –
आओ बचा लें देश को !!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!



‘धरती’ की दुर्दम ‘प्यास’ ने |

‘सत्ता मिले’, इस आस ने ||

हर ‘एकता’ को छल लिया-

टूटे हुये ‘विशवास’ ने ||

मत-भेद इतने बढ़ गये-

‘दल-दल’ में यह फँसने लगा |

आओ निकालें देश को !!

आओ बचा लें देश को !!१!!


हर सुख बढ़ा,राहत बढ़ी |

फिर और भी चाहत बढ़ी ||

पथ बहुत ही चिकने हुये-

सुविधा की ‘चिकनाहट’बढ़ी ||

दे गयी हम को दगा,‘गति’–
लड़खड़ा कर गिरने लगा |

आओ संभालें देश को !!

आओ बचा लें देश को !!२!!

‘कुण्ठा के घेरे’ बढ़ गये |

कुछ दुःख घनेरे बढ़ गये ||

‘राहें’ न हमको सूझतीं –

कितने ‘अँधेरे’ बढ़ गये ||

हम क्या करें ? जायें कहाँ ??

‘माहौल’ है खलने लगा |

दें कुछ ‘उजाले’ देश को !!

आओ बचा लें देश को !!३!!


हम को बहुत ही खेद है |

इसमें अजब कुछ भेद है ||

खेला है ‘हिन्दुस्तान’ को-

शायद समझ कर ‘गेंद’ है ||

‘ये खिलाड़ी’ हैं देश कुछ –

‘यह खेल’ अब खलने लगा |

अब मत ‘उछालें’ देश को !!

आओ बचा लें देश को !!४!!
 

‘माली’ कहाँ के ठग रहे !

‘विष-वृक्ष’ क्यों हैं उग रहे !!

कितने कहाँ “प्रसून” हैं ?

‘हम खोज लें यह असलियत’-

‘यह चाह’ मन में लो जगा !

आओ मंझा लें देश को !!

आओ बचा लें देश को !!५!!


शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य)-(र)-चलो बचाएं देश को !! (रूपक-गीत) (१)रोगिणी इंसानियत बचाइये बचाइये!!




रोगिणी 'इंसानियत' बचाइए !बचाइए !!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

रोग 'काम-क्रोध ' का |

रोग 'प्रतिशोध ' का ||

रोग-'वैमनस्यता '-

रोग है 'अबोध ' का ||

घाव से भरा हुआ है तन-'हृदय के मोद ' का |

इसकी साँस घुट रही, बचाइये!बचाइये !!

इसकी 'आस 'लुट रही, बचाइये!बचाइये  !!

रोगिणी 'इंसानियत' बचाइए !बचाइये !!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

दिल में कितनी 'नफरतों की खाइयाँ ' बनीं हुई !

फ़र्क-भरी 'फ़ितरतों की खाइयाँ ' बनीं हुई !!

खून की प्यासी 'क़ुदरतों  की खाइयाँ ' बनीं हुई !!!

'सभ्यताके मुखौटे ' पे 'झाइयाँ '  बनीं हुई !!!!

चीखती पुकारती 'भावना ' दुखी हुई -

इसके 'रूप के पराग-धूलि ' अब बिखर गयी - 

इसे 'प्रेम-अमरफल 'का 'स्वरस ' पिलाइये !

करके कोई यत्न इसे कैसे भी जिलाइये !!

गिर चुकी,सहारा दे के अब इसे उठाइये !!!

रो चुकी है बहुत इसे ,और मत रुलाइये !!!!

'निराशा' में डूबी, इसे दिलासा दिलाइये !!!!

रोगिणी 'इंसानियत' बचाइए !बचाइए !!१!!
 

इसे शौक चढ़ गया  है,'सुखों की ही टोह ' का ! 

इसे रोग लग गया है,' हिंसक कु-द्रोह का !! 

इसे दंश लग गया है 'कंचन के मोह ' का !!!

इसे 'ज्वर' चढ़ा है देखो,आज 'देश-द्रोह' का !!!!

बहुत 'ताप दे चुके हो, 'विष ' पिला पिला इसे -

पा के ' दर्द भरा ताप ' इसकी आँख झर गयी - 

इसकी दशा देख कर के,इस पे तरस खाइये !

इसके लिए करुण बन के,मन में दया लाइये !!

'वासना' में इसे और अधिक मत जलाइये !!!

पी चुकी है 'ज़हर' बहुत, और मत पिलाइए !! 

'तृष्णा का नाच ' अब तो इसे मत नचाइये !!!!

रोगिणी 'इंसानियत' बचाइए !बचाइए !!२!!


      




हो गये हैं लोग आज देखो कितने बावले !

'ऐश' के लिए हैं कितने  देखो ये उतावले !!

दूसरों के सुख को देख,देखो 'डाह'से जले !!

'प्रीति के शरीर ' पे हैं कितने 'छाले '-'आवले ' !!!

बुद्धि चेतना रहित कुन्ठ जैसी हो गयी -

' भावना की रागिनी 'देखिये  तो मर गयी -

सोये हुये 'हृदय के तार ' को जगाइये  !

सुन्न हुये 'ह्रदयों के तार ' को जगाइये !!

' मद ' में डूबे, सुप्त हुये 'प्यार ' को जगाइये !!!

'कुम्भकर्ण ' सी है इनकी 'नींद '  को भगाइये !!!!  

' जागरण की प्रेरणा ' का खेल कुछ रचाइये !!!!

रोगिणी 'इंसानियत' बचाइए !बचाइए !!३!!
  




'जीर्ण ज्वर ' की तरह लिया रूप 'वैर-भाव 'ने |

क्रूर रूप ले लिया है इनके हर स्वभाव  ने ||

उजड़ते रहे हैं 'दृश्य ' सारे ही 'सुहावने ' ||

'प्रकृति ', के 'पंख ' रहे ', 'नोचते ' लुभावने ||||

बदलते समय की कितनी आँधियां यहाँ चलीं-

बदलते समय के साथ,' मन ' में 'रेत ' भर गयी-

' आत्म घात ' कर रहे हैं ये, इन्हें बताइये !

इनके ' दिल ' में ' करुण भाव के विटप ' उगाइये !!

' नासमझ ' हैं,इन्हें कुछ चिताइये !चिताइये !!! 

इन्हें ' सत्य-ज्ञान-प्रेम का सुपथ ' सुझाइए !!!!

रूठ गयी, जतन कर के, हाँ इसे रिझाइये !!!!

रोगिणी 'इंसानियत' बचाइए !बचाइए !!४!!
 




शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य(य) प्रयाण गीत (३) चल रे चल कांवरिया चल! ! (एक नयी सोच)


चल रे चल कांवरिया चल! ! (एक नयी सोच)



चल रे चल काँवरिया चल! 


चल रे शम्भु-नगरिया चल!!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
 

घावों से घवराया क्यों?

व्रत के पथ पर आया क्यों??

दुःख पाकर सुख पायेगा-

काँटों भरी डगरिया चल!!

चल रे चल काँवरिया चल !!१!!


दुःख को गले लगाना सीख !

बात की आन निभाना सीख !!

एक तू ही तो दुखी नहीं-

सब की दुखी उँगरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!२!! 

 


अपनी आँखें पोंछ ले तू!

यह सच्चाई सोच ले तू !!

दर्दों के सैलावों में- 

डूबी अखिल नगरिया चल !!  

चल रे चल काँवरिया चल !!३!! 


अन्धकार व्यवहारों में |

डूबे सभी विकारों में ||


आचरणों के चन्दा पर- 

घिरी है मलिन बदरिया चल!


चल रे चल काँवरिया चल !!४!! 

 

कर अपने मन को मजबूत!

अपनी छिपी शक्ति को कूत!!

नाच न् असत् की उँगली पर- 

तू है नहीं पतुरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!५!! 

 

मौन निराशा का तू तोड़ !

मत अपनों से मुहँ को मोड़!!

नफ़रत के इस जंगल में -

बजा के प्रीति बंसुरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!६!! 

 

 

निज में अपना 'प्रियतम' खोज!

यह जीवन है 'उसका' ओज !!

रूह तेरी 'उस' की सजनी-

वह तेरा 'साँवरिया' चल!!

चल रे चल काँवरिया चल !!७!! 

 

यों तो जग में मीत अनेक |

पर निज हित जीता हर एक || 

अपने 'प्रियतम' कान्हां की-

बन प्रियतमा 'गुजरिया' चल!!

चल रे चल काँवरिया चल !!८!! 




समय के 'पंख' बहुत बलवान |

कभी न् रुकते हैं तू जान ||

"प्रसून" अब तू देर न् कर !

बीती जाये उमरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!९!!  


 

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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