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सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (१)ईश्वर-वन्दना (ख)‘कलि-ज्वाल’


(सारे चित्र  'गूगल-खोज' से साभार)

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प्रभु ! देखो ऐसी जली, यहाँ ‘पाप की आग’ |
सभी जले ‘कलि-जवाल’ में, कहाँ सकें हम भाग ??

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‘प्रयास के साबुन’ विफल’, विफल ‘युक्ति का नीर’ |

मन-आचरण विशुद्ध हों, करें कौन ‘तदवीर’ ??

‘चित्त-चदरिया’ हो गयी, मैली बढ़े विकार |

कौन ‘बरेठा-गुरु’ मिले, इसको सके निखार ??

बिना तुम्हारी कृपा के, मिटें किस तरह ‘दाग’ ?

सभी जले ‘कलि-जवाल’ में, कहाँ सकें हम भाग ??१??


‘विलासिता-शय्या’ बिछा, करके उस पर शयन |

‘श्रद्धा’ गहरी नींद में, देख रही ‘दुस्स्वप्न’ ||

‘निष्ठा’, ‘भक्ति-सुभाव’ से, गयी आजकल ऊब |

‘आस्था’ ‘मद-मदिरा’ पिये, गयी ‘नशे’ में डूब ||

भग्न ‘प्रेरणा-भेरियाँ, कसून सकेगा जाग ?

सभी जले ‘कलि-जवाल’ में, कहाँ सकें हम भाग ??२??



आतंकों-भय से हुई, सारी दुनियाँ खिन्न |

हर ‘दिल’ में भर दो ‘दया’, हो कर तनिक प्रसन्न ||

‘रौद्र’ और ‘वीभत्स’ का, हुआ आपसी मेल |

‘क्रोध’-घृणा’ का हो रहा, यहाँ ‘घिनौना खेल’ ||

“प्रसून” की हर सोच में, भरे ‘करुण अनुराग’ |

 सभी जले ‘कलि-जवाल’ में, कहाँ सकें हम भाग ??३??



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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