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सोमवार, 26 अगस्त 2013

विचार-वाटिका (मौलिक विचारों की अभिव्यक्ति)

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बात कुछ अजीव और विरोधाभासी लगती है | ‘अध्यात्म’ और दुराचार ! कोई ताल मेल ही नहीं | एक ‘आसमान’ दूसरा धरती | नहीं नहीं उस के भी नीचे रसातल | गार नारकीय गर्त | दोनों का क्या जोड़ ? यहाँ अध्यात्म नहीं, उस के छद्म रूप की बात चल रही है | साधुओं के वेश में घूमते कुछ नर-पिशाचों की चर्चा है यह ! ‘तापसों’ और ‘कपट-तापसों’ को कैसे पहंचानें हम ? तेज दोनों में होता है | पैशाचिक –पाशविक तेज आँखों में एक विशेष भय-कूट चमक द्वारा पहँचान सकते हैं | सतो गुणीय, तेज नेत्रों में भोलेपन, मस्त ‘अल्हड़ हास’ और निश्छल मुस्कान से पहँचान सकते हैं | उस की बातों में चाटुकारिता या अति कठोरता उस की पाशविकता का स्वरूप होंती है | इन दोनों के बीच का स्फुट किन्तु स्नेह मिश्रित वार्त्तालाप जिस में आत्मा की अभिव्यक्ति झलक उठे, दैवी व्यक्तित्व का प्रतीक है |


     ध्यान रहे, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार, वासना, परिग्रह आदि विकारों असंतुलित अनैसर्गिक रूप अपनी छाप अवश्य छोड़ देता है आँखों में, वाणी में मुख-मण्डल पर | हम उसे जान सकते हैं स्वयं को निर्भय, निर्वैर निरपेक्ष और निस्स्वार्थ निष्काम रह कर | सकाम, स्वार्थयुक्त सलोभ और अपेक्षाओं से घिरी साधना की जिज्ञासा इस विशलेषण-शक्ति को उभरने नहीं देती और रहमान-शैतान की पहँचान असंभव है |  बड़ी अजीब बात है कि हम एक गाय बैल खरीदने में सुवार शक करते है |न बाज़ार में कोई भी चीज़ खरीदते समय हम बाल की खाल निकाल कर जाँच परख कर छाँट-फाटक कर देखते है | गुरु, जो ‘भाव-सागर’ को पार उतारने वाला मल्लाह है, मोक्ष का पथ-प्रदर्शक है, को चुनने में कोरी ह्बावुकता, उथले जज्वात में उलख कर जल्दवाजी करते हैं |    
 पानी पीजे छान के ! गुरु कीजे जान के !!


(शेष अगले प्रकाशन में)         


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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