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शनिवार, 1 दिसंबर 2012

गंगा-स्नान/नानक-जयन्ती (कार्त्तिक-पूर्णिमा)(२)भागीरथी प्रयास करें !


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मेरे देश के वासी, अपने मन को यों न निराश करें !
‘परिवर्तन की गंगा’ लाने, ‘भागीरथी  प्रयास करें !!
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‘धारा पुण्य की’ बह जायेगी, ‘आचरणों की रेती’ पर |
‘नयी ज़िन्दगी’ आ जायेगी, ‘निष्ठाओं की खेती’ पर ||
करें इकट्ठी ‘अपनी ताक़त’, ‘निज ऊर्जा’ जगायें, फिर-     
छोड़ ‘परायी आस’, सभी जब, ‘निज बल’ पर विशवास करें ||
मेरे देश के वासी, अपने मन को यों न निराश करें !
‘परिवर्तन की गंगा’ लाने, ‘भागीरथी  प्रयास करें !!१!!

‘औरों के कन्धों’ पर रख कर, जो बन्दूक चलाते हैं |
‘कन्धा’ हटे तो, सदा ‘निशाने’ चूक उन्हीं के जाते हैं ||
‘लक्ष्य भेदना’ सम्भव केवल, केवल तब हो सकता है-
‘अपने हाथों की क्षमता’ की यदि थोड़ी सी आस करें |
मेरे देश के वासी, अपने मन को यों न निराश करें !
‘परिवर्तन की गंगा’ लाने, ‘भागीरथी  प्रयास करें !!२!!

‘अन्धेरे की जटिल मलिनता’, है ‘रोशनी की गंगा’ में |
इस ‘अन्धेरे की दलदल’ में, डूबे ‘ज्ञानी’ दुनियाँ में ||
‘निज विवेक’ के हाथों’ से, यह ‘मलिन अँधेरा’ दूर करें-
‘अपने यत्न का तेल’ जला कर, ‘दीप’ में ‘कोई प्रकाश’ करें ||
मेरे देश के वासी, अपने मन को यों न निराश करें !
‘परिवर्तन की गंगा’ लाने, ‘भागीरथी  प्रयास करें !!३!!

‘धर्मबुद्धि’ ने हार मान ली, ‘पापबुद्धि’ के आगे क्यों ?
‘शेर सत्य के’, ‘झूठ भेड़ियों’ से डर कर के भागे क्यों ??
अरे, ‘लोभ’ के असर में आकर, ‘रोगी’ क्यों ‘ईमान’ हुआ-
इस के उपचारों के कोई ढंग हम पुन: तलाश करें |
मेरे देश के वासी, अपने मन को यों न निराश करें !
‘परिवर्तन की गंगा’ लाने, ‘भागीरथी  प्रयास करें !!४!!

‘आस्थाओं के हरे बगीचे’, मुरझाये मुरझाये हैं |
‘श्रद्धाओं के पादप’ सूखे, ‘डाल-पात’ अलसाये हैं ||
“प्रसून” महका कर ‘आशा’ के, खिलने के कुछ अवसर दें-
चलो, ‘बहारों’ में हम फिर से, ‘नवजीवन’ की ‘आस’ भरें !!
मेरे देश के वासी, अपने मन को यों न निराश करें !
‘परिवर्तन की गंगा’ लाने, ‘भागीरथी  प्रयास करें !!५!!
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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