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शनिवार, 12 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (3)गुरु-वन्दना(ख) गुरु-गुण-गान (v) गुरु ‘धर्म’ के ‘प्राण’

मित्रो ! इस पुस्तक के तीसरे सर्ग गुरु-वन्दना के गुरु-महत्ता की पांचवीं(अंतिम से पहली) रचना आप की सेवा में है जिसमें गुरु को तथा कथित धर्मों से अलग व्यापक अर्थों में 'धर्म' की धुरी बताया है !
(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार, प्रथम चित्र  मेरे पीर का मेरे  कैमरे का) 
यदि है ‘धर्म’ ‘शरीर’ तो, ‘गुरु’ हैं उसके ‘प्राण’ |
‘धर्म’ हुआ ‘रोगी’ अगर, ‘गुरु’ ने किया ‘निदान’ ||
‘इंसानों’ में ‘फ़रिश्ते’, जैसे ‘हज़रत नूह’ |
‘खिदमत’ की ‘थी ‘जिस्म’ से, ‘पाक़-साफ़’ थी ‘रूह’ ||
मूसा,ईसा, जरस्थुत, या फिर इब्राहीम |
‘आलिम’ बन कर ‘इल्म’ ये, करते थे ‘तक़सीम’ ||
इनकी ‘ताक़त’ देख कर, झुकता था ‘शैतान’ |
‘धर्म’ हुआ ‘रोगी’ अगर, ‘गुरु’ ने किया ‘निदान’ ||१||

‘रूहानी दौलत’ लिये, थे मौलाना रूम |
अब्दुल क़ादिर की मची, हुई हर जगह ‘धूम’ ||
बाबा फ़रीद थे हुये, ‘आमिल-क़ामिल पीर’ |
सब को बाँटा ‘धर्म-धन’, लगते रहे ‘फ़कीर’ ||
‘तवारीख’ में आज तक, उनका ‘अमिट निशान’ |
‘धर्म’ हुआ ‘रोगी’ अगर, ‘गुरु’ ने किया ‘निदान’ ||२||

‘सन्त’ शम्स तवरेज़ या, ‘गुरु’ हज़रत मंसूर |
‘मुर्शीदी सिलसिले’ में, हुये बड़े ‘मशहूर’ ||
चिश्ती शेख सलीम या, ख्वाज़ा मोइनुद्दीन |
अथवा साविर पाक़ हों, या कि निज़ामुद्दीन ||
‘मानवता’ का सदा ही, करते थे ‘सम्मान’ |
‘धर्म’ हुआ ‘रोगी’ अगर, ‘गुरु’ ने किया ‘निदान’ ||३||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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