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शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(9) जोंक (ख) प्रेत-पिशाचिनी |

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
शोषणके बढ़ने लगे, भारी अत्याचार |
भारत की धरती दबी, सह कर इतने भार!!
ताक़’ में हमने रख दिया, है राष्ट्र का स्वत्व’ |
‘सम्विधान’ से अधिक हैं, रखते निजी प्रभुत्व’ ||
लम्पट, लोभी लालची, अगुआ हुये अनेक |
जला-जला सिद्धान्त’ ये, ‘रोटीलेते सेंक ||
अमन-चैनके ‘शीश’ पर, कितने किये ‘प्रहार’ !
भारत की धरती दबी, सह कर इतने भार!!१!!

अनाचार’  का  ‘हथौड़ा’, ‘हठधर्मी के ‘हाथ’ |
सदाचारका तोडते,निर्दयता’ से माथ’ ||
नीति-न्याय’ के ‘शीशपर, ठोंक रहे गुलमेख’ |
प्रजातंत्रघायल किया, और रहे हम देख !!
दया-मनुजता’-धर्म को दिया, हमीं ने है मार |
भारत की ‘धरती’ दबी, सह कर इतने ‘भार!!२!!


दहेजको रोको तथा, रोको वैरिन घूस!
इन दोनों ने प्रेम-रस’, सभी लिया है चूस ||
दोनों प्रेत-पिशाचिनी’, जैसे क्रूर-कराल !
मानवताको खा गये,चल कर कुटिल कुचाल!!
कौन बचाए अब हमें, सुन कर ‘करुण पुकार’ ?
भारत की धरती दबी, सह कर इतने ‘भार!!३!!

घूस’ के लिए चित्र परिणाम

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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