(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘पवन’ चली ‘डाली’ हिली, डर गये ‘पीले पात’ |
सिहर उठे ‘आतंक’ से, सुभग छबीले ‘पात’ ||
पुरखों ने बोये जहाँ, ‘मीठे मीठे आम’ |
उन्हें काट कर बो रहे, हम ‘बबूल उद्दाम’ ||
पोर पोर में चुभ रहे, ‘अन्तर्मन’ को साल |
‘पीडाओं’ के उग रहे, जहाँ तहाँ ‘कंटाल’ ||
किस से जा कर हम कहें, ‘अपने मन की बात’ |
सिहर उठे ‘आतंक’ से, सुभग छबीले ‘पात’ ||१||
‘बीते युग’ की बात है, ‘बसन्त’ का इतिहास |
‘पतझर’ आया ‘बाग’ में, रूठ गया ‘मधुमास’ ||
विकास है ‘सुन्दर’ यथा , ‘नागफनी का फूल’ |
ऊपर ऊपर ‘खुशनुमा’, भीतर पैने ‘शूल’ ||
‘कोहरे’ ने देखो किया, ‘धूमिल, मलिन प्रभात’ |
सिहर उठे ‘आतंक’ से, सुभग छबीले ‘पात’ ||२||
यों तो चारो ओर हैं, महके हुये “प्रसून” |
पर इन के मन में छुपा, चुभता हुआ ‘जुनून’ ||
इस ‘पश्चिमी विकास’ ने, दी है ऐसी चोट |
‘सम्बन्धों’ में चुभ रही, ‘लालच’ भरी ‘कचोट’ ||
‘मानवता’ पर हो गया, है निर्मम ‘आघात’ |
सिहर उठे ‘आतंक’ से, सुभग छबीले ‘पात’ ||३|
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ।
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