(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘स्वार्थपरता’ की ‘निठुर’, पड़ी ‘चोट’ भरपूर |
धीरे धीरे ‘एकता’,
हुई जा रही ‘चूर’ ||
‘ईर्ष्या’ से सुलगा सदा, ‘अन्तर’ का अनुराग |
ज्यों ‘बादल’ की आग’ में, झुलसे ‘सुन्दर बाग’ ||
‘दिल’ हो गये ‘तिज़ोरियाँ, ‘प्यार’ बना ‘व्यापार |
‘स्वर्ण-रजत’ की चाह का , गरम हुआ ‘बाज़ार’ ||
‘अपनों’ से ‘अपने’ हुये, कितने देखो दूर !
धीरे धीरे ‘एकता’, हुई जा रही ‘चूर’ ||१||
‘मन-झीलों’ की ‘सतह’ पर, उगती ‘लोभ-सिवार’|
‘कमल’ खिला कर ‘स्नेह’ के, इस का करें ‘निखार’ ||
‘रिश्तों’ पर मैली बहुत, चढ़ी ‘खुदी’ की ‘गर्द’ |
इसे हटा कर यत्न से, समझें सब का ‘दर्द’ ||
‘इंसानी जज्वात’ का, रहा यही दस्तूर |
धीरे धीरे ‘एकता’, हुई जा रही ‘चूर’ ||२||
‘जातिवाद’ के नाम पर, ‘दल’ बन गये अनेक |
हुई ‘खोखली’ इस तरह, ‘राष्ट्रवाद’ की ‘टेक’ ||
‘धर्म’-‘कर्म कर्तव्य’ है, दें सब को ‘सन्देश’ |
‘अपनी ‘सत्ता’ से बड़ा, होता ‘अपना देश’ ||
और ‘अमन’ के ‘चमन’ को, ‘गिद्ध’ रहे कुछ घूर |
धीरे धीरे ‘एकता’,
हुई जा रही ‘चूर’ ||३||
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