(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘भौतिक सुख’ छूने लगे, हैं ‘ऊँचा आकाश |
थोड़ा ‘मन’ का भी करो, मेरे मित्र ‘विकास’ !!
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’ |
‘पीले’ होकर झर गये, ‘सुन्दर सुन्दर पात’ ||
‘स्वप्न-सरोवर’ पर हुआ, ‘निर्मम उल्का पात’ |
जले ‘कामना’ के सभी, ‘जलजातों’ के ‘गात’ ||
सहमे सहमे थम गये, ‘कुमुदिनियों’ के ‘हास’ |
थोड़ा ‘मन’ का भी करो, मेरे मित्र ‘विकास’ ||१!!
‘नागफनी’ आज़ाद है, है काँटों का ‘राज’ |
मुरझाए ‘चम्पा-कुसुम’,और ‘मोगरे’ आज ||
‘हंस’ कहीं जा सो गये, जागा ‘गिद्ध-समाज’ |
इसी लिये तो हो गया, ‘आतंकों का राज‘ ||
‘अपनी छाया’ पर नहीं, रहा तनिक विशवास |
थोड़ा ‘मन’ का भी करो, मेरे मित्र ‘विकास’ ||२!!
‘धर्म-जाति’ के लिये, क्यों, रखते मन में भेद ?
भेद ‘एकता-धरा’ पर, बो देता है ‘खेद ||
द्वेष से मन में सदा, ऐसे उपजा भेद |
जैसे कीड़े ने किया, ‘मीठे फल’ में छेद ||
‘स्वतंत्रता-उद्यान’ में, ‘कलह’ ‘कंटीली घास’ |
थोड़ा ‘मन’ का भी करो, मेरे मित्र ‘विकास’ !!३!!
सुंदर रचना ।
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