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बुधवार, 17 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (10) ‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ (क) ‘नन्दन वन’ जल उठा !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

 ‘लोभ की लपटेंउठ रहीं, ‘स्वार्थ के अंगार’ !

भट्टीभ्रष्टाचारकी, ‘ईंधन मलिन विचार !!

 ‘मल-करकट के ढेरमें, लगी हुई ज्यों आग !

दिशा-दिशा दुर्गन्ध है, किधर चलें हम भाग !!

नफ़रत की चिनगारियाँ, छिटकीं चारों ओर !

झुलसी  सारी प्रीति की, बँधी हृदय से डोर’ ||

धुआँ’ ‘दर्द-दुःख-द्वन्दका, उफ़ ! यह अत्याचार !

भट्टी-भ्रष्टाचारकी, ‘ईंधन’ मलिन विचार!!!!


धन की तृष्णादानवी’, हाथों पाप-मशाल!

आगलगाने को चली, बन कर आयी काल!!

प्रेम’-सु-‘नन्दन वन जला, ‘सत्’ के ‘मोर-चकोर!

जले, जले हैं आचरण’, मचा हर तरफ़ ‘शोर’ !!

झुलसे  कोमल भाव’  सब,  ‘मानवता-आधार!

भट्टी’ भ्रष्टाचार की, ‘ईंधन’ मलिन  विचार!!!!

मैं बन जाऊँ आज ही, ‘कारूँया कि कुबेर!

सोच रहा  हर निठल्ला’, रंच लगे मत देर !!

जहाँ मिले जिस हाल में, पा कर बनो ‘बहाल!

‘जनता’ या ‘सरकार’ का, लूट मुफ़्त का माल’ ||

मत लौटाओ हड़प लो, सारा ‘नक़द-उधार!

भट्टी-भ्रष्टाचार’  की,  ‘ईंधन’ मलिन  विचार !!३!!

3 टिप्‍पणियां:

  1. पढ़-पढ़ कर जी दहल जाता है -आखिर कब तक !

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर रचना है अर्थ भाव शब्द सौंदर्य सभी एक साथ लिए हुए।

    धुआँ’ ‘दर्द-दुःख-द्वन्द’ का, उफ़ ! यह अत्याचार !

    ‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन’ मलिन विचार’ !!१!!

    "द्वंद्व" कर लें।

    जवाब देंहटाएं

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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