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गुरुवार, 28 अगस्त 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (घ) कितनी गहरी ‘खाइयाँ’ !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


फ़िसल-फ़िसल कर गिर रहा, जिनमें ‘अखिल समाज’ |
कितनी गहरी ‘खाइयाँ’ हैं ‘नफ़रत’ की आज !!
‘फ़िसलन’ भरे ‘विकास’ में, ‘उजली कीचड़’ देख |
हुए ‘विचारक’ ‘अनमने’, देखो आज अनेक !!
ऊपर ऊपर मिट गये, लगते सारे ‘भेद’ |
भीतर भीतर बो रहे, मन को चुभते ‘खेद’ ||
‘प्रेम-परिन्दे’ तक रहे, कुछ ‘खूनी परवाज़’ |
कितनी गहरी ‘खाइयाँ’, हैं ‘नफ़रत’ की आज !!१!!


लोभ ‘कुर्सियों का’ तथा, डिगा हुआ ‘ईमान’ |
इन दोनों के ‘मेल’ से, दुखी सभी ‘इंसान’ ||
‘रिश्तों-नातों’ से अधिक, है ‘दौलत का मोह’ |
‘खूनी’ जैसा हों गया, है ‘आपस का द्रोह’ ||
‘हविश’ कर रही इस तरह, है ‘हृदयों’ पर ‘राज’ |
कितनी गहरी ‘खाइयाँ’, हैं ‘नफ़रत’ की आज !!२!!


‘मन-मंदिर’ में ‘प्रेम की, प्रतिमाओं’ को तोड़ |
‘शैतानों’ में मची है, अजब ‘कुफ़्र’ की ‘होड़’ ||
‘सुख-सुविधायें’ ढूँढ़ते, ‘खुदा के आशिक’ रोज़ |
भूल गये हैं ‘प्रेम के, अमृत’ की ये ‘खोज’ ||
‘इश्क हकीक़ी’ छोड़ कर, तकें ‘सियासी ताज़’ |
कितनी गहरी ‘खाइयाँ’ हैं ‘नफ़रत’ की आज !!३!!





















5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-08-2014) को "गणपति वन्दन" (चर्चा मंच 1721) पर भी होगी।
    --
    श्रीगणेश चतुर्थी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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