(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
तनिक बैठ सोचिये, ‘ध्यान’ लगा कर आज !
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ !!
‘मानवता; का ‘धर्म’ औ, आपस की
‘अनुरक्ति’ |
‘प्रेम’ परस्पर हो अगर, बढ़े ‘समाजी शक्ति’ ||
‘शिथिल हुई क्यों ‘एकता’, की ‘संयोजक डोर’ ?
‘जहाँ-तहाँ’ क्यों पनपते, हैं ‘कर्मों के चोर’ ??
बिना ‘कर्म’ ‘सुख’ भोगते, कुछ तो आये ‘लाज’ !
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ ||१||
देश बड़ा है ’धर्म’ से, इसमें कुछ न ‘असत्य’ |
रहें ‘समर्पित’ देश को, ‘अध्यात्म’ के ‘कृत्य’ ||
लोगों को समझाइये, यों समाज का ‘धर्म’ |
केवल समाज के लिये, हैं ‘मानव’ के ‘कर्म’ ||
‘समाज-चिन्तन’ मुख्य है, गौण ‘तख्त औ ताज़’ |
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ ||२||
‘भेद-भावनाएँ’ मिटें, जगे ‘प्रेम का भाव’ |
बचे डूबने से तभी, ‘संगठना की नाव’ ||
‘स्वार्थ-लिप्सा’ से बचें, यदि समाज के लोग |
हो सकते हैं दूर तब, ‘द्वन्द-कलह’ के ‘रोग’ ||
‘गरिमा’ भारत की बचे, जिस पर हमको ‘नाज़’ |
‘व्यक्ति’ ‘भावना’ से जुड़े, बनता तभी ‘समाज’ ||३||
व्यक्ति भावना से जुड़े एवं समज को तोड़ने वाली बातों को नकार दे !सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर ।
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