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मंगलवार, 1 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना (ख)रस-याचना(vi)’शिव’-‘गंगा’ की ‘धार’

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार !)




‘अकल्याण’ से दूर हो, हे माँ ! हर ‘रस-सार’ !

माता ! सारे ‘रस’ बनें, ‘शिव’-गंगा की ‘धार’ !!


माँ ! ‘विभाव’-‘अनुभाव’ हों, या ‘संचारी भाव’ !
या ‘स्थाई भाव’ हो, या ‘व्यभिचारी भाव’ !!
ये सारे ‘रस-अंग’ माँ, हरते रहें ‘तनाव’ !
’तट’ तक ‘नदिया-पार’ ज्यों, करती ‘अच्छी नाव’ ||
‘डुबा’ न पाये किसी को, ‘उलझन’ की ‘मंझधार’ !
माता ! सारे ‘रस’ बनें, ‘शिव’-गंगा की ‘धार’ !!१!!
‘वात्सल्य’ या ‘वीर रस’, ‘रौद्र’ या ‘वीभत्स’ |
या कि ‘भयानक रस’ तनिक, भी न कहीं हों ‘कुत्स’ !!
‘शान्त’ औ ‘गम्भीर रस’, रहें समेटे ‘ज्ञान’ !
तथा ‘भक्ति’, इन सभी से, मत उपजे ‘अभिमान’ !!
‘विकृत वासना’ से बचे, ‘रस-राजा श्रृंगार’ !!
माता ! सारे ‘रस’ बनें, ‘शिव’-गंगा की ‘धार’ !!२!!
‘उच्छृंखल’ मत ‘हास्य’ हो, करता रहे ‘विनोद’ !
                                                         ‘स्वस्थ’ ‘भावना’ को रखे, कर ‘आमोद-प्रमोद’ !!
रखे ‘संतुलन’, ‘सम दशा’, हर ‘रस’ की ‘निष्पत्ति’ !
‘असन्तुलन औ ‘विषमता’,से मत बढ़े ‘विपत्ति’ !!
‘सत्-रज-तम’ तीनों ‘गुणों’, में मत भरें ‘विकार’ !
माता ! सारे ‘रस’ बनें, ‘शिव’-गंगा की ‘धार’ !!३!!

4 टिप्‍पणियां:

  1. अकल्याण’ से दूर हो, हे माँ ! हर ‘रस-सार’ !

    माता ! सारे ‘रस’ बनें, ‘शिव’-गंगा की ‘धार’ !!
    sundar bhavyukt prastuti .badhai

    जवाब देंहटाएं
  2. सत्-रज-तम’ तीनों ‘गुणों’, में मत भरें ‘विकार’ !
    माता ! सारे ‘रस’ बनें, ‘शिव’-गंगा की ‘धार’ !!३!!
    ...वाह...बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  3. बुरा मत माैनना मित्र ।
    मैं झूठी तारीफ नहीं करता हूँ।
    दोहा गीत बहुत सुन्दर रचा है आपने।
    मगर दोहों में दोष स्पष्ट झलक रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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