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बुधवार, 24 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ट) ‘मानवीय पशुता’ |(२) बावली कच्ची कलियाँ |


यह रचना 'ग्रन्थ-क्रम' में एक कड़ी है | इस में आधुनिक आडियो वीडियो आदि के द्वारा 'नग्नवाद' के खुले प्रचार से कुप्रभावित शिशु-बाल-किशोर के भोले मन पर पड़ी छाप की और संकेत किया गया है | बच्चे मैने भी पार्कों में गलत तलाश में जुटे देखे हैं |इस रचना का सम्बन्ध वर्तमान 'रेप की घटनाओं' से न हो कर उन बच्चों में आयी 'काम-विकृति' से है | [शब्द-कोष- कनक=धतूरा |  अभिराम=सुन्दर |   उद्दाम= दमन के अयोग्य |]
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से सभार)


(२) बावली कच्ची कलियाँ |
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‘सु-सभ्यता’ ने रख लिया, ‘असभ्यता’ ने नाम |
‘चम्पा-पादप’ में लगे, ‘कनक के फल’ उद्दाम ||
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‘पंख’ उठा कर ‘तितलियाँ’, रही हैं ऐसे नाच |
‘मर्यादायें’   टूटतीं,   जैसे  ‘कच्चा  ‘काँच’ ||
‘भ्रमरों की गुंजार’ की,  जगह है ‘कर्कश राग’ |
‘तोते- मैना’ की जगह,  घुसे ‘बाग’ में ‘काग’ ||
‘ललित कलाओं’ की मिटी, ‘सुखद शान्ति’ अभिराम |
‘चम्पा-पादप’ में लगे, ‘कनक के फल’ उद्दाम ||१||


‘कच्ची कलियाँ  बावली’,  ‘पंखुरियों’  से  तंग |
स्वयं   दिखाना  चाहतीं,  ‘खुले  अधखुले अंग’ ||
 वस्त्र पहनने के हुये, अजब  निराले ढंग |
देख  देख  कर  हम  हुये, हैं  हैरत  से  दंग ||
हमें  ‘संस्कृति-प्रदूषण’, का  यों  मिला  ‘इनाम’ |
‘चम्पा-पादप’ में लगे, ‘कनक के फल’ उद्दाम ||२||


बच्चों के साथ ब्लू फिल्म देहने को जाती मन चली माँ 

टी.वी., सी.डी.,  वीडियो,  की   घर-घर  भरमार |
नित्य  ‘नग्नता’  का  हुआ,  जिनसे खूब प्रचार ||
जम कर  ‘पी कर’, कर ‘नशा’, आदत से मजबूर |
देख के  फ़िल्में ‘ब्लू’ हुये,  ‘शिशु’  ‘बचपन’ से दूर ||
लाते  बाप  खरीद  कर,  ‘कमा कमा’ कर  ‘दाम’ |
‘चम्पा-पादप’  में  लगे, ‘कनक के फल’  उद्दाम ||३||



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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