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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ट) ‘मानवीय पशुता’ | (१) ‘पिशाचिनी भूख’ |


ग्रन्थ के इस सर्ग में स्वेच्छा से न्ग्न्वाद को अपनाने की बजाय  बलात् पशुता-आचरण -यौन शोषण की और संकेत किया गया है | इस सर्ग में वर्तमान परिस्थितियों की झलक मात्र एक संयोग है |रचना पुरानी है |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

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मिटी ‘सादगी’ ह्रदय के, उथले हुये विचार |
‘मानवता’ में पनपते, ‘पशुता के ‘व्यवहार’ ||

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‘काम-कला’  का  प्रदर्शन,  खुले  में  करते लोग |
‘पशुओं’   जैसे चाहते,   ‘मुक्त  यौन  के  भोग‘||
ये  ‘मानवता’  के  सभी,  ‘नियम’  रहे  हैं  तोड़ |
‘पशु-प्रवृत्ति  के प्रदर्शन’,  की  यों  लगी है ‘होड़’ ||
इसीलिये  तो   ‘ह्रदय’  में,  भरने  लगे  ‘विकार’ |
‘मानवता’   में  पनपते,  ‘पशुता  के  व्यवहार’ ||१||


‘प्रेम’ का  अर्थ ‘शरीर  का,  रमण’ नहीं  है  मात्र |
‘कामी  जन’   तन   भोगते,  बना  ‘वासना-पात्र’ ||
‘रति  की  मदिरा’  पी  तथा,  तन को ठोकर मार |
जो  जन  सुख  हैं भोगते,  वे  हैं  ‘सभ्य गँवार’ ||
ऐसे   लोगों   से   बना,   है   ‘जंगल’   संसार |
‘मानवता’  में   पनपते,  ‘पशुता  के  व्यवहार’ ||२||


खुले  खुले ‘खल’  खेलते,  खुल कर ‘रति के खेल’ |
‘इंसानी तहज़ीब’  को,   ‘नर्क’  में   रहे  ढकेल  ||
देखो,  ‘क्लब’, ‘पार्क’  तथा,  ‘समुद्र-तट’  इत्यादि |
में   ‘कामी जन’  दिखाकर,  ‘उच्छृंखल  उन्माद’ ||
करते   ‘बन्धन’   तोड़  कर,  ‘पशुवत यौनाचार’  |
‘मानवता’  में   पनपते,  ‘पशुता  के  व्यवहार’ ||३||





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सामयिक घटनाओं की प्रतिक्रया केवल मेरे ब्लॉग 

 'प्रसून' में |

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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