Blogger द्वारा संचालित.

Followers

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (क)वन्दना (४) राष्ट्र-वन्दना


         

        




राष्ट्र-वन्दना




(मेरे भारत देश)




       ! मेरे भारत देश,स्वर्ग से


   सुन्दर और सु रूप हो तुम !




    
  
  



शान्त चित्त तुम, अवढर दानी-आगत के सत्कारक हो ! 


हृदय विशाल गगन सा व्यापक,चिर गंभीर विचारक हो !!


‘धर्म-भेद’ से रहित ‘स्व्च्छ्मन’,’मानवता’ का रूप हो तुम !!


तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!१!!



 
 
  




सहन शक्ति है असीम शिव सी,जग जाते तो रौद्र महा |


वैरी को भी गले लगाया, उसका अत्याचार सहा ||


पर जब तूमने ‘करवट बदली’,’विप्लव’ हो,’विद्रूप’ हो तुम !


तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!२!!




  



‘ओज-अनल’ को सहेज रखते,’शान्त ज्वालामुखी’ हो तुम !


तुम न कभी हो सत्ता लोलुप,है तुम में अनंत संयम ||


दैत्य जब आक्रामक होते, ‘त्रिदेव के प्रारूप’ हो तुम !!


तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!३!!


 



===========================================

===========================================

6 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  2. साहित्य की गहरी सोच-परख हेतु धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

  3. शान्त चित्त तुम, अवढर(औगढ़ ) दानी-आगत के सत्कारक हो !


    हृदय विशाल गगन सा व्यापक,चिर गंभीर विचारक हो !!


    ‘धर्म-भेद’ से रहित ‘स्व्च्छ्मन(स्वच्छमन )’,’मानवता’ का रूप हो तुम !!


    तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!१!!बेशक काव्यात्मक सौन्दर्य से भरपूर है रचना लेकिन यह तस्वीर प्राचीन भारत की है इंडिया की भी लिखो ........
    शुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
    शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक
    शुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
    शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुमूल्य सुझाव हेतु कोटिश:आभार!आपके सुझाव हमें एक बल प्रदान करते हैं | वैसे मेरे अंदर का कवि समन्वयवादी है | 'वह'पुरातन व आधुनिक अच्छाइयों का पक्षधर है किन्तु दोनों कालों की रूढिगत पाखण्ड-आडम्बर-जन्य
      कुरीतियों,बुराइयों को स्वीकार नहीं करता ! ब्लोगिंग में अभी नवोदित होने के कारण अपत्याषित त्रुटियाँ टंकित हो जाती हैं |

      हटाएं
  4. बहुत सुंदर !!

    जरूरी है गरम जोश कविता
    उन सब को सुनाना
    जो बेच रहे हैं देश को
    खा रहे हैं कोयले का खाना !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. नुकीली 'शल्य-क्रिया'वत;नीम से अति यथार्थवाद को सहन करने व उसकी परख हेतु कोटि आबार !

      हटाएं

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

मेरे सभी ब्लोग्ज-

प्रसून

साहित्य प्रसून

गज़ल कुञ्ज

ज्वालामुखी

जलजला


  © Blogger template Shush by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP