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शनिवार, 20 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (11) स्वर्ण-कीट (क) मैली चमक !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
जुगनू पकड़े हाथ में, मलिन’ हुआ स्पर्श!
लालच-‘मैली चमकसे, उन्हें’ हुआ है ‘हर्ष’ !!
सोने’ के ‘पिंजड़ेफँसी, ‘मैनाहुई  ‘गुलाम’ !
बन्दीबन कर भोग ‘सुख’, समझा दण्डइनाम!!
तृष्णा’ चमकीली बसा, मन व्याकुल  बेचैन !
जगते, सोते, ‘लाभ’ की, चिन्ताहै ‘दिन-रैन’ !!
पतित हुआ है आचरण’, समझ रहे उत्कर्ष!
लालच-‘मैली चमकसे, उन्हें’ हुआ है ‘हर्ष’ !!१!!


बेच  दिया ईमानको, बेचा और ज़मीर!
भावुकताके तन’ कसी, ‘सोने की जंजीर!!
‘रिश्तेनाते-दोस्ती’, सब  से बढ़ कर ‘वित्त’ !
‘अपनों’ से बढ़ स्वर्णहै, लगा उसी में चित्त!!
बस सिक्कों की खनकमें, डूबे हैं प्रेम-विमर्श!
लालच-‘मैली चमकसे, उन्हें’ हुआ है ‘हर्ष’ !!२!!



प्रेमहुआ व्यापारसा, दिल हो गये दुकान’ |
धन की चोटसे हो गये, दुर्बल हैं मन-प्राण’ ||
श्रद्धा-आस्थाहो गयीं, हैं कितनी ‘कमज़ोर’ |
कोष भक्ति का’ चुर गया, घुसा लोभ’ का ‘चोर’ ||
फँसा अज़ब जंजालमें, सारा भारतवर्ष |
लालच-‘मैली चमकसे, उन्हें’ हुआ है ‘हर्ष’ !!३!!



गुरुवार, 18 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (10) ‘भट्टी-भ्रष्टाचार’(ख) ‘काँटों’ की ‘बाड़’ |

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

जानें कितनी बार है, बदल चुकी सरकार !

ज्यों के त्यों ‘ज़िन्दा’ अभी, ‘चुभते भ्रष्टाचार !!

राजनीति’ के ‘खेलमें, पनपा है छलआज |

जनता चिड़ियाबन गयी, नेता हैं कुछ बाज’ ||

भ्रष्ट तन्त्रको दे दिया, ‘प्रजातन्त्रका ‘नाम’ |

इस काँटों’ की ‘बाड़नेचुभते’  दिये इनाम’ ||

मिले राज्यसे बीच में, छिन जाते अधिकार |

ज्यों के त्यों ‘ज़िन्दा’ अभी, ‘चुभते भ्रष्टाचार’ !!१!!

कुछ ‘पैसों’ के लिये हम, बेच रहे ईमान!

राष्ट्र-भक्तिके नाम पर, देते हैंव्याख्यान !!

‘चतुराई’ से भर रहे, अपने घर में कैश’ |

जनता के श्रमसे अरे, लूट रहे वे ऐश !!

 ‘धनवादी सिद्धान्त’ के,  हुये कई बीमार’ |

ज्यों के त्यों ‘ज़िन्दा’ अभी, ‘चुभते भ्रष्टाचार’ !!२!!
‘लोभ’ हुआ ख्ब्बीससा, तृष्णा’ निठुर ‘चुड़ैल!

दोनों मिल कर खेलते, ‘नाश-कबड्डी-खेल !!

इनसे उपजे कमीशन’-घूस औ धूर्त ‘दहेज़!

इन से ‘अच्छे लोग’ भी, करते अब न ‘गुरेज़’ !!

है भारत’’ पर ‘भारसा, इनका हर ‘व्यहवार’ !

ज्यों के त्यों ‘ज़िन्दा’ अभी, ‘चुभते भ्रष्टाचार’ !!३!!

बुधवार, 17 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (10) ‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ (क) ‘नन्दन वन’ जल उठा !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

 ‘लोभ की लपटेंउठ रहीं, ‘स्वार्थ के अंगार’ !

भट्टीभ्रष्टाचारकी, ‘ईंधन मलिन विचार !!

 ‘मल-करकट के ढेरमें, लगी हुई ज्यों आग !

दिशा-दिशा दुर्गन्ध है, किधर चलें हम भाग !!

नफ़रत की चिनगारियाँ, छिटकीं चारों ओर !

झुलसी  सारी प्रीति की, बँधी हृदय से डोर’ ||

धुआँ’ ‘दर्द-दुःख-द्वन्दका, उफ़ ! यह अत्याचार !

भट्टी-भ्रष्टाचारकी, ‘ईंधन’ मलिन विचार!!!!


धन की तृष्णादानवी’, हाथों पाप-मशाल!

आगलगाने को चली, बन कर आयी काल!!

प्रेम’-सु-‘नन्दन वन जला, ‘सत्’ के ‘मोर-चकोर!

जले, जले हैं आचरण’, मचा हर तरफ़ ‘शोर’ !!

झुलसे  कोमल भाव’  सब,  ‘मानवता-आधार!

भट्टी’ भ्रष्टाचार की, ‘ईंधन’ मलिन  विचार!!!!

मैं बन जाऊँ आज ही, ‘कारूँया कि कुबेर!

सोच रहा  हर निठल्ला’, रंच लगे मत देर !!

जहाँ मिले जिस हाल में, पा कर बनो ‘बहाल!

‘जनता’ या ‘सरकार’ का, लूट मुफ़्त का माल’ ||

मत लौटाओ हड़प लो, सारा ‘नक़द-उधार!

भट्टी-भ्रष्टाचार’  की,  ‘ईंधन’ मलिन  विचार !!३!!

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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