(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
डाल के चारा लोभ का, धनिकों ने लीं पाल !
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम के जाल !!
अपना हीरा लाज का, बेचा सस्ते मोल !
ऐसी दौलत खो रहीं, जिसकी कहीं न तोल !!
ग्राहक रीझें सौंपती, हैं सोलह श्रृंगार !
सजे हैं इन के नाच से, क्लब, कैशीनो, बार !!
कलियुग में कलि ने चली, कुटिल कुचाली चाल
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम के जाल !!1!!
नृत्य-कला जो खोलती, थी मन की हर गाँठ !
अब केवल तन-भोग के, पढ़ा रही है पाठ !!
अभिनेता–अभिनेत्रियाँ, देते ऐसी सीख !
युवक-युवतियाँ’ माँगते, रति के धन की भीख !!
मैली कीचड़ में सने, मोती और प्रवाल !
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम के जाल !!2!!
काम-कला में निपुण ये, कुछ उर्वशियाँ आज !
भरती हैं उत्तेजना, कर पुरुषों पर राज !!
कलुष कल्पना से सदा, पौरुष होता क्षीण |
जीवन के सुर सो गये, मानो टूटी बीन ||
या बडवानल से जलें, सुभग कमल के ताल !
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम के जाल !!3!!
सुंदर प्रभावी रचना...
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