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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता ! (ज) कूकर-बिलाव

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

वाह ! वाह !! क्या खूब है, यह युग का बदलाव !
हारे हैं इंसान से, कूकर और बिलाव !!
कैट-वाक  में  देखियेललनाओं  का  रूप !
खुले खुले मैदान कीकामुक कामुक धूप !!
छुपे हुये हर हर अंग पर, दो अंगुल का चीर !
भर भर अंजुलिपीजिये, खुला रूप का नीर !!
हर आयु में झेलिये, यौवन का सैलाव !
हारे हैं इंसानसे, कूकर और बिलाव !!1!!
फैशन टी.वी. देख कर, कामुक हुये किशोर !
काम की मैली गर्द से, गँदला उम्र का भोर !!
कच्ची कच्ची आयु में, कली बनी है फूल !
यौवन के सुख ढूँढती, अपना बचपन  भूल !!
तट से पहले  डूबती, बीच धार में नाव !
हारे  हैं  इंसान सेकूकर और बिलाव !!2!!


इन चित्रों से कर रही, पशुता मन  में  वास !
बचपन से पहले जगी, है यौवन की प्यास !!
जंघा-जघन-प्रदेश  तकहुये  आवरण-हीन !
दर्शक गण का इन्होंने, लिया चैन-सुख छीन !!
मानस-सरवर बन गया, है मैला तालाव !
हारे  हैं  इंसान से, कूकर और बिलाव !!3!!

2 टिप्‍पणियां:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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