(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘मानवता को छल रहा, फिल्मों का संसार |
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार ||
टी.वी. चैनल आजकल, कमा रहे हैं नाम |
उगल रहे हैं वासना, ब्रेक-डांस के नाम
||
दाम कमाने के लिये, चिड़ियाँ आधी नग्न |
सौदा कर के हुस्न का, स्वर्ण-रजत में मग्न ||
कितना उच्छ्रंखल हुआ, रस-राजा श्रृंगार !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार ||1||
गुप्त ज्ञान खुलने लगा, सरे आम हर ओर !
लाज का पर्दा’ हटा कर, परियाँ’ हर्ष-विभोर !!
निर्धन बेबस नारियाँ, हो पूँजी की दास !
अपना सब कुछ बेचतीं, जो कुछ उन के पास !!
ब्लू फिल्मों का गरम है, काला चोर बज़ार !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार !!2!!
सुख के साधन ढूँढने, पाने भौतिक भोग !
आये दिन हैं पालतीं, धनी बनें’ यह ‘रोग’ !!
अंग-प्रदर्शन के नये, करतीं कई कमाल !
नर्तकियाँ धनवान हैं, खूब कमा कर माल !!
ममता-मूर्ति छू रही, ऊँची पाप-कगार !
ममता-मूर्ति छू रही, ऊँची पाप-कगार !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार !!3!!
सटीक ।
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