(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
मन-सु-गगन में काम-घन, उठे निरंकुश आज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||
तज कर सात्विक भोज को, अति तामस आहार |
अधिक मद्य पी ‘मद’-भरे, ‘पशुओं’ से ‘व्यवहार’
||
कामोत्तेजक चित्र लख , उठा वासना-ज्वार |
फिर ‘संयम के बाँध’ की,
टूट गयी दीवार ||
भोली चिड़ियाँ ढूँढते, कामी जन बन बाज
|
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||1||
मर्यादा से हीन पशु, बन कर करे
शिकार |
मानवता में पनपते,
जंगल के आचार ||
छल-बल-कपट के दाँव से, करते कामुक घात |
शील पे करते
आक्रमण, रच कामी उत्पात ||
धन-जन-मत या प्रबल तन, का है
ऐसा राज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||2||
फ़ुसलाकर, दे लोभ
कुछ, डाल काम के पाश |
नन्हें पँछी प्यार
के, धूर्त लेते फांस ||
कुछ उलूक-सुत
ढूँढ कर,
कुमारियाँ मजबूर |
भूखी - प्यासी विवशता, करें भोग भरपूर ||
सम्विधान रख ताख में,
लूटें ललना-लाज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||3||
सुन्दर दोहा गीत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंतमस को स्वर देती सशक्त रचना। मनुष्य को स्वतंत्रता है चयन की तदनन्तर कर्म की अब यह उस पर है वह अपना अकाल कैसा चाहता है। बीता कल की वासना (डिजायर )का परिणाम है वर्तमान और मेरे आज के कर्म का परनिाम है मेरा आने वाला कल भविष्य। चयन वासना करलो या वेदान्त नेट पर दोनों हैं।
जवाब देंहटाएंतमस को स्वर देती सशक्त रचना। मनुष्य को स्वतंत्रता है चयन की तदनन्तर कर्म की अब यह उस पर है वह अपना कल कैसा चाहता है। बीता कल की वासना (डिजायर )का परिणाम है वर्तमान और मेरे आज के कर्म का परिणाम है मेरा आने वाला कल भविष्य। चयन वासना करलो या वेदान्त नेट पर दोनों हैं।
जवाब देंहटाएंप्रारब्ध को मैं बदल नहीं सकता पुरुषार्थ करके अपना भविष्य लिख सकता हूँ।
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता ! (घ) काम-पाश |
http://sahityaprasoon.blogspot.com/2014/10/13_11.html?showComment=1413081194384#c5710998119918359141
मन-सु-गगन में काम-घन, उठे निरंकुश आज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||
तज कर सात्विक भोज को, अति तामस आहार |
अधिक मद्य पी ‘मद’-भरे, ‘पशुओं’ से ‘व्यवहार’ ||
कामोत्तेजक चित्र लख , उठा वासना-ज्वार |
फिर ‘संयम के बाँध’ की, टूट गयी दीवार ||
भोली चिड़ियाँ ढूँढते, कामी जन बन बाज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||1||
मर्यादा से हीन पशु, बन कर करे शिकार |
मानवता में पनपते, जंगल के आचार ||
छल-बल-कपट के दाँव से, करते कामुक घात |
शील पे करते आक्रमण, रच कामी उत्पात ||
धन-जन-मत या प्रबल तन, का है ऐसा राज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||2||
फ़ुसलाकर, दे लोभ कुछ, डाल काम के पाश |
नन्हें पँछी प्यार के, धूर्त लेते फांस ||
कुछ उलूक-सुत ढूँढ कर, कुमारियाँ मजबूर |
भूखी - प्यासी विवशता, करें भोग भरपूर ||
सम्विधान रख ताख में, लूटें ललना-लाज |
जगी वासना की तड़ित, पशुवत मनुज-समाज ||3||