(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
तन के आधे आवरण,
देखो दिये उतार !
बना शील का आभरण. खुला रूप-बाज़ार !!
इन वस्त्रों का देखिये, क्या ही अजब कमाल !
ह्रदय फाँसने के लिये,
बने हुये ये जाल !!
शायद कोई भी जगह, तन
की रही न शेष !
जिसे ढांकने में
सफल, कामिनियों के वेश !!
लाज छिपाने में हुए, बेचारे लाचार !!
हुआ शील का आभरण. खुला रूप-बाज़ार !!1!!
इन वस्त्रों को देख
कर, जागी
सोई आग !
सोई-सोई, काम की,
गयी कामना जाग !!
इच्छाओं में भोग का,
भरता जाता ताप !
इसी लिये अनुराग को,
जला रहा संताप !!
और वासना-जलधि में,
आता जब-तब ज्वार !
बना शील का आभरण. खुला रूप-बाज़ार !!2!!
वस्त्र सभ्यता के सदा, से हैं
रहे प्रतीक !
शायद इन्हें उतार कर, हम न कर
रहे ठीक !!
तन ढँकने के
लिये हैं,
हमने पहने वस्त्र
|
काम-युद्ध के हित
इन्हें, बना रहे क्यों अस्त्र !!
क्यों दिखलाते गुप्त कुछ, तन के चाप–उभार !
बना शील का आभरण. खुला रूप-बाज़ार !!3!!
सोचनीय !
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