(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
जैसे ‘पंछी’ को कहीं, पकड़े कोई ‘बाज’ |
यों मज़लूमों’ पर पकड़, है ‘ज़ुल्मों' की आज ||
‘स्यार’, ‘भेड़िया’ लोमड़ी’, का लख कर ‘आक्रोश’ |
डरे-डरे से छुप गये, हैं ‘भोले खरगोश’ ||
अपराधों के गिद्ध’ हैं, उड़ते चारों ओर |
‘समाज-वन’ में किस तरह, रहें ‘प्रेम के मोर’ ??
चाह रहीँ ‘खूँरेज़ियाँ’, करना अपना ‘राज’ |
यों ‘मज़लूमों’ पर पकड़’ है, ‘ज़ुल्मों’ की आज ||१||
‘आचरणों की ‘मछलियों’, का है ‘खस्ता हाल’ |
पड़ा हुआ उन पर निठुर, ‘वित्त-वाद’ का ‘जाल’ ||
‘जमाखोरियों’ के हुये, ‘अजगर’ जैसे ‘पेट’ |
सभी ‘हकों’ के ‘मेमने’, चढ़े इसी की ‘भेंट’ ||
आज तलक भी ‘वक्त’ का, बदला नहीं ‘मिजाज़’
यों ‘मज़लूमों’ पर पकड़’, है ‘ज़ुल्मों’ की आज ||२||
रोको ‘जलती
ईर्ष्या’, उगल रही है ‘ताप’ !
मत उगलो अब ‘द्वेष’ का, ‘आँच भरा सन्ताप’ !!
‘दावानल’ सी जल रही, है ‘नफ़रत’ की ‘आग’ |
करके यत्न संवारिये, ‘सुमनों’ के ‘अनुराग’ !!
‘अमन’ चला मुहँ मोड़ कर, दो उस को ‘आवाज़’ !
यों ‘मज़लूमों’ पर पकड़’, है ‘ज़ुल्मों’ की आज ||३|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें