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सोमवार, 1 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (6) मौसम का उत्पात (क) ‘पीले पत्ते’

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
    


भौतिक सुख’ छूने लगेहैं ऊँचा आकाश |
थोड़ा मन का भी करोमेरे मित्र विकास !!
मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’ |
पीले होकर झर गये, ‘सुन्दर सुन्दर पात ||
स्वप्न-सरोवर’ पर हुआ, ‘निर्मम उल्का पात |
जले कामना’ के सभी, ‘जलजातों’ के ‘गात’ ||
सहमे सहमे थम गये, ‘कुमुदिनियों’ के ‘हास’ |
थोड़ा ‘मन’ का भी करोमेरे मित्र ‘विकास’ ||!!



नागफनी’ आज़ाद हैहै काँटों का ‘राज’ |
मुरझाए चम्पा-कुसुम’,और मोगरे’ आज ||
हंस’ कहीं जा सो गयेजागा गिद्ध-समाज’ |
इसी लिये तो हो गया, ‘आतंकों का राज‘ ||
अपनी छाया’ पर नहींरहा तनिक विशवास |
थोड़ा ‘मन’ का भी करोमेरे मित्र ‘विकास’ ||!!



धर्म-जाति’ के लियेक्योंरखते मन में भेद ?
भेद एकता-धरा’ परबो देता है खेद ||
द्वेष से मन में सदा, ऐसे उपजा भेद |
जैसे कीड़े ने किया, ‘मीठे फल’ में छेद ||
स्वतंत्रता-उद्यान’ में, ‘कलह’ ‘कंटीली घास’ |
थोड़ा ‘मन’ का भी करोमेरे मित्र ‘विकास’ !!!!




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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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