(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
पैनी ‘लोभ-दुधार’ की, पड़ी इस तरह ‘मार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||
‘वित्त्वाद’ की ‘मकड़ियाँ’, मन में ली हैं पाल |
चुपके चुपके बुन रही, हैं ‘लालच के जाल’ ||
‘जज्वों’ से सूने हुये, ‘दिल’ बन गये ‘मशीन’ |
रूखे-नीरस हो गये, सभी भाव रंगीन ||
‘स्नेह के कमलों’ पर पड़ी, ‘तेज़ाबी बौछार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||१||
‘दुखी’ और भी दुखी हैं, शोषित हो कंगाल |
खाते ‘रूखी रोटियाँ’, बिन ‘सब्जी’ बिन ‘दाल’ ||
कई ‘लुटेरे’ लूटते, उड़ा रहे ‘तर माल’ |
ऊपर से ओढ़े हुये, ‘राजनीति की खाल’ ||
‘जमा खोरियों’ के कई, गरम हुये ‘बाज़ार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||२||
धनिकों-निर्धन में हुआ, है ‘खाई’ सा ‘भेद’ |
‘मिट्टी’ से सस्ता हुआ, है श्रीमिकों का ‘स्वेद’ ||
‘समता की कचनार’ पर, ‘हिम’ का हुआ ‘निपात’ |
और ‘एकता-बेलि’ पर, ‘ओलों’ का ‘आघात’ ||
जनता यदि न सचेत हो, है बेबस ‘सरकार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||३||
बहुत सुंदर ।
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