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बुधवार, 24 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (11) स्वर्ण-कीट (ग) सुनहरी मकड़ियाँ |

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

पैनी लोभ-दुधारकीपड़ी इस तरह ‘मार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||
‘वित्त्वाद’ की ‘मकड़ियाँ’, मन में ली हैं पाल |
चुपके चुपके बुन रही, हैं लालच के जाल’ ||
जज्वोंसे सूने हुये, ‘दिल बन गये मशीन’ |
रूखे-नीरस हो गये, सभी भाव रंगीन ||
स्नेह के कमलोंपर पड़ी, ‘तेज़ाबी बौछार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||||
‘दुखी’ और भी दुखी हैं, शोषित हो कंगाल |
खाते रूखी रोटियाँ’, बिन सब्जीबिन दाल’ ||
कई लुटेरेलूटते, उड़ा रहे तर माल’ |
ऊपर से ओढ़े हुये, ‘राजनीति की खाल’ ||
जमा खोरियोंके कई, गरम हुये बाज़ार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||||


धनिकों-निर्धन में हुआ, है खाई’ सा ‘भेद’ |
मिट्टी से सस्ता हुआ, है श्रीमिकों का ‘स्वेद’ ||
समता की कचनारपर, ‘हिमका हुआ ‘निपात’ |
और  एकता-बेलिपर, ‘ओलों’ का ‘आघात’ ||
जनता यदि न सचेत  हो, है बेबस ‘सरकार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||||


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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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