(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘काव्य-कला’ का दो
मुझे, माता ! समुचित ज्ञान !
सदा तुम्हारा
करूँगा, ‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!
मेरी ‘’रचना
धर्मिता’, दे सबको ‘आल्हाद’ !
मेरा मन सन्तुष्ट
हो, माँ ! ‘लेखन’ के बाद !!
‘कविता’ कैसी भी जननि !, ‘तुकान्त’ या ‘अतुकान्त’ !
पढ़ने में अच्छी लगे,
करे ‘चित्त’ को ‘शान्त’ !!
‘मर्यादा-सम्पन्न’
हो, संयत ‘छन्द-विधान’ !
सदा तुम्हारा करूँगा,
‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!१!!
अम्ब ! तुम्हारे ‘पद’ गिरूँ, ‘चरण’ करूँ स्पर्श !
‘कविता’ के ‘पद’ औ
‘चरण’, दें पाठक को हर्ष !!
‘तुक’ न कहीं
‘बेतुकी’ हो, और न ‘अर्थ’-विहीन !
‘गति-यति’ कभी न
‘भंग’ हो, यथा ‘कनसुरी बीन’ !!
माँ ! ‘पिंगल’ का
बोध कुछ, मुझ को करो प्रदान !
सदा तुम्हारा
करूँगा, ‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!२!!
कहीं ‘मात्रिक’ तो
कभी, कहीँ ‘वार्णिक छन्द’ |
‘गीत-गज़ल’ जो भी
रचें, दे सब को ‘आनन्द’ !!
मेरी ‘रचनायें’
करें, सबको ‘भाव-विभोर’ !
जैसे होता ‘ईख’ का,
है ‘मीठा’ हर ‘पोर’ ||
‘काव्य’ मेरा बन
सके, माँ ! तेरी ‘पहँचान’ !
सदा तुम्हारा करूँगा,
‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!३!!
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