(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
समाज ‘माता’ की तरह, होता ‘पिता’ सामान |
इस समाज के सभी पर, हैं
भारी ‘अहसान’ ||
जीना सिखलाता हमें, यह बन कर ‘आचार्य’ |
इसकी सेवा करें सब, यह नितान्त अनिवार्य ||
समाज ‘भोला’ शम्भु सा, है हरि सा ‘चैतन्य’ |
‘ब्रह्मा’ सा ‘गम्भीर’ है, यह समाज अति ‘धन्य’ ||
‘सत्-रज-तम’ तीनों गुणों, की समाज है
‘खान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||१||
अलग-अलग इसके हमें, मिलते कई ‘स्वरुप’ |
‘देश-काल’-‘भूगोल’ के, होते ये ‘अनुरूप’ ||
‘अच्छे स्वरुप’ में सदा, ‘समाज’ है ‘रहमान’ |
और ‘बिगड़ते रूप’ में, है यह ही ‘शैतान’ ||
‘विवेक का सागर’ कभी, और कभी ‘नादान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||२||
कई ‘विविधतायें’ लिये, इसके ‘गुण’ हैं ‘भिन्न’ |
कभी ‘सुखों का सिन्धु’ है, और कभी अति ‘खिन्न’ ||
‘समाज’ ने पैदा किये, ‘राम-कृष्ण’-‘भगवान’ |
और इसी में हुये हैं ‘रावण-कंस; समान ||
“प्रसून” इसका हुआ है, ‘पतन’ कभी ‘उत्थान’ |
इस
समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||३||
सुंदर काव्य ।
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