मेरे नित्रो ! इस काव्य-ग्रन्थ का वन्दना-सर्ग समाप्त होने के बाद आज से पुस्तक के मूल विषय पर आप का स्वागत है ! यथासम्भव 'सत्य' के मर्यादित स्वरूप का अनावरण का प्रयास है |श्रावणीय अन्ध विश्वासों पर थोड़ी सी चोटें करने के लिए क्षमायाची हूं |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
जब तक ‘जग’ है, तुम ‘अमर’, क्या ‘कल’ या क्या ‘आज’ ?
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य देव’-समाज !!
करूँ तुम्हारी ‘वन्दना’, खोल ‘ह्रदय’, ‘दृग’ मूँद |
तुम ‘पर्वत’ मैं ‘धूल-कण’, तुम ‘सागर’ मैं ‘बूँद’ ||
रहे ‘प्रलय’ में भी ‘अमर’, तुम न हुये ‘निर्बीज’ |
तुम्हें मिटाने में विफल’, ‘काल’ गया है खीझ ||
तुम ‘बदले’, ‘इतिहास’ में, बदले कितने ‘राज’ !
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य देव’-समाज !!१!!
‘व्यक्ति-व्यक्ति’ से है बना, हुआ तुम्हारा ‘रूप’ |
सभी तुम्हारे ‘अंग’ हैं, क्या ‘कँगला’ क्या ‘भूप’ !!
बिना तुम्हारे है कहाँ, किसका क्या ‘अस्तित्व’ ?
तुम को अर्पित कर दिया, मैंने अपना ‘स्वत्व’ ||
अपने ‘गीतों’ से तुम्हें, दी मैंने ‘आवाज़’ |
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य देव’-समाज !!२!!
‘शान्ति-नदी’ में ‘बाढ़’ के, आये हुये ‘उफान’ |
‘परिवर्तन’ ने ला दिये’, हैं कितने ‘तूफ़ान’ !!
बढ़ने लगीं ‘बुराइयाँ’, ‘अच्छाई’ का ‘ह्रास’ |
‘पीडायें’ देता रहा, चुभता रहा ‘विकास’ ||
पहने हो हंसते हुये, तुम काँटों का ‘ताज’ |
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य’ ‘देव-समाज’ !!३!!
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