सच कहता हूँ, नहीं है,
मिथ्या इस में ‘लेश’ !
तुम ‘माता’,तुम ही ‘पिता’,
हे मेरे ‘प्रिय देश’ !!
खा कर पुष्ट ‘शरीर’ है, तुम
से पाकर ‘अन्न’ |
‘गोद’ तुम्हारी मिली जो,
खेले, रहे ‘प्रसन्न’ ||
‘प्यास’ बुझाई, जब लगी,
पीकर ‘शीतल नीर’ |
तुमने हमको दिया जो, अर्पित
तुम्हें ‘शरीर’ ||
जो चाहा, तुमसे मिला, रहा न
कुछ भी ‘शेष’
तुम माता,तुम ही ‘पिता’, हे
मेरे ‘प्रिय देश’ !!१!!
काम तुम्हारे आ सके,
‘हाड़’-‘मांस’ या ‘चर्म’’ |
तभी ‘पूर्ण’ हो सकेगा, मेरा
‘जीवन-धर्म’ ||
‘रूप’ तुम्हारा यत्न से,
राखें सदा ‘सँवार’ |
इसमें पनपें मत कभी, अब कुछ
‘विषम विकार’ !!
‘अमन-चैन’ से भरा हो
‘सामाजिक परिवेश’ !
तुम माता,तुम ही ‘पिता’, हे
मेरे ‘प्रिय देश’ !!२!!
‘अनेकता’ में ‘एकता’, आज
तुम्हारा ‘मन्त्र’ |
‘टूटी माला’ फिर जुड़े, ऐसे
हों ‘आयास’ !
सभी नागरिक ‘एकजुट’, होकर
करें ‘विकास’ ||
कभी ‘आपसी फूट’ का, मत हो
सके ‘प्रवेश’ !
तुम माता,तुम ही ‘पिता’, हे
मेरे ‘प्रिय देश’ !!३’!!
बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आपका
सुन्दर भावना मय लेखन, काश देश का हर नागरिक ऐसा सोचे
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