(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
‘राष्ट्र’ ! ‘समष्टि-ब्रह्म’ तू, ‘पूज्य’ जैसे ‘ईश’ |
तुझको ‘कोटि प्रणाम’ हैं, ‘विनत’ झुका कर ‘शीश’ ||
नदियाँ ‘रक्त-प्रवाहिनी’, ‘रुधिर’ सु-पावन ‘नीर’||
‘वायु’ तेरे ‘प्राण’ हैं, और ‘पवन’ है ‘साँस’ |
‘संस्कृति’ तेरी ‘आत्मा’, मय ‘आस्था-विश्वास’ ||
वैचारिक सिद्धान्त’ ‘मन’, ‘मस्तक’ उच्च ‘गिरीश’ |
तुझको ‘कोटि प्रणाम’ हैं, ‘विनत’ झुका कर ‘शीश’ ||१||
मन में ‘आशा-ज्योति’ भर, ‘अन्धकार’ को छाँट !! ‘
जगत-गुरु’ तू रहा है, मेरे भारत-देश !
तूने दिया ‘अतीत’ में, ‘जग’ को ‘’नव सन्देश’ ||
तुझको ‘कोटि प्रणाम’ हैं, ‘विनत’ झुका कर ‘शीश’ ||२||
होकर विशुद्ध ‘ह्रदय-मन’, ‘अहंकार’ को मेट |
अर्पित सेवा में करूँ, में ‘काव्य’ की ‘भेंट’ ||
तेरे ‘प्रेरण’ से भरें, मेरे ‘मुक्त विचार’ |
‘जन-जन’ में ये कर सकें, ‘ऊर्जा’ का ‘संचार’ ||
दे “प्रसून” को ‘राष्ट्र-प्रभु’, अपना यह ‘आशीष’ |
तुझको ‘कोटि प्रणाम’ हैं, ‘विनत’ झुका कर ‘शीश’ ||३||
वाह सुंदर ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17- 07- 2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1677 में दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
उत्कृष्ट दोहा गीत।
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