इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||
जब ‘हद’ से ‘बेहद’ हुये, घनानन्द के ‘पाप’ |
तब चाणक्य बने ‘गुरु’, हरने सबके ‘ताप’ ||
जब ‘सिद्धार्थ’ बन गये, ज्ञानी ‘गौतम बुद्ध’ |
क्रूर ‘अंगुलीमाल’ भी, हुआ ‘प्रबुद्ध’ व ‘शुद्ध’ ||
सुलझा दी ‘उलझन’ सभी, ‘गुरु’ ने सुनी ‘पुकार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||१||
‘धूल’ में ‘हीरा’ मलिन था, ग्वाला बालक ‘तुच्छ’ |
उस ‘हीरे’ को ‘प्रेम’ से, पोंछ किया था ‘स्वच्छ’ ||
‘बीज’-बीच ज्यों ‘वृक्ष’ है, होता लेकिन ‘सुप्त’ |
वैसे विकसित ‘गुण’ हुये, बन गया ‘चन्द्रगुप्त’ ||
‘समाज’ का ‘गुरु’ प्रबल हो, हो न कभी ‘लाचार’ !
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||२||
‘गुरुवर’ गोरखनाथ ने, बन कर ‘कृपानिधान’ |
भटके जो ‘पथ’ से उन्हें, दिया ‘ज्ञान का दान’ ||
भर्तृहरि, राँझा तथा, ‘ज्ञानी’ गोपीचन्द |
‘गुरु’ ने नरसी आदि के, काटे ‘भव के फन्द’ ||
‘ऊसर’ ‘उपजाऊ’ किये, बरसा ‘अमृतधार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||३||
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||
जब ‘हद’ से ‘बेहद’ हुये, घनानन्द के ‘पाप’ |
तब चाणक्य बने ‘गुरु’, हरने सबके ‘ताप’ ||
जब ‘सिद्धार्थ’ बन गये, ज्ञानी ‘गौतम बुद्ध’ |
क्रूर ‘अंगुलीमाल’ भी, हुआ ‘प्रबुद्ध’ व ‘शुद्ध’ ||
सुलझा दी ‘उलझन’ सभी, ‘गुरु’ ने सुनी ‘पुकार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||१||
‘धूल’ में ‘हीरा’ मलिन था, ग्वाला बालक ‘तुच्छ’ |
उस ‘हीरे’ को ‘प्रेम’ से, पोंछ किया था ‘स्वच्छ’ ||
‘बीज’-बीच ज्यों ‘वृक्ष’ है, होता लेकिन ‘सुप्त’ |
वैसे विकसित ‘गुण’ हुये, बन गया ‘चन्द्रगुप्त’ ||
‘समाज’ का ‘गुरु’ प्रबल हो, हो न कभी ‘लाचार’ !
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||२||
‘गुरुवर’ गोरखनाथ ने, बन कर ‘कृपानिधान’ |
भटके जो ‘पथ’ से उन्हें, दिया ‘ज्ञान का दान’ ||
भर्तृहरि, राँझा तथा, ‘ज्ञानी’ गोपीचन्द |
‘गुरु’ ने नरसी आदि के, काटे ‘भव के फन्द’ ||
‘ऊसर’ ‘उपजाऊ’ किये, बरसा ‘अमृतधार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||३||
सशक्त गुरूवन्दना -दोहावली, इतिहास के झरोखे से शब्द चयन उठाकर बहुत कुछ से वाकिफ कराती समझाती गुरु एक सार्वकालिक सार्वत्रिक जरूरियात है। साफ़ सन्देश देती है यह साहित्यिक धरोहर। आप भी पढ़ें :
जवाब देंहटाएंझरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (3)गुरु-वन्दना(ख) गुरु-गुण-गान (iv)बहुत किये ‘उपकार’ !
( कुछ चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
सदा ‘ज्ञानकी बीन’ के, जोड़े टूटे ‘तार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||
जब ‘हद’ से ‘बेहद’ हुये, घनानन्द के ‘पाप’ |
तब चाणक्य बने ‘गुरु’, हरने सबके ‘ताप’ ||
जब ‘सिद्धार्थ’ बन गये, ज्ञानी ‘गौतम बुद्ध’ |
क्रूर ‘अंगुलीमाल’ भी, हुआ ‘प्रबुद्ध’ व ‘शुद्ध’ ||
सुलझा दी ‘उलझन’ सभी, ‘गुरु’ ने सुनी ‘पुकार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||१||
‘धूल’ में ‘हीरा’ मलिन था, ग्वाला बालक ‘तुच्छ’ |
उस ‘हीरे’ को ‘प्रेम’ से, पोंछ किया था ‘स्वच्छ’ ||
‘बीज’-बीच ज्यों ‘वृक्ष’ है, होता लेकिन ‘सुप्त’ |
वैसे विकसित ‘गुण’ हुये, बन गया ‘चन्द्रगुप्त’ ||
‘समाज’ का ‘गुरु’ प्रबल हो, हो न कभी ‘लाचार’ !
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||२||
‘गुरुवर’ गोरखनाथ ने, बन कर ‘कृपानिधान’ |
भटके जो ‘पथ’ से उन्हें, दिया ‘ज्ञान का दान’ ||
भर्तृहरि, राँझा तथा, ‘ज्ञानी’ गोपीचन्द |
‘गुरु’ ने नरसी आदि के, काटे ‘भव के फन्द’ ||
‘ऊसर’ ‘उपजाऊ’ किये, बरसा ‘अमृतधार’ |
इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||३||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (12-07-2014) को "चल सन्यासी....संसद में" (चर्चा मंच-1672) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'