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बन
कर ‘उज्जवल चन्द्रमा’, जिसमें नहीं ‘कलंक’ |
तुम
हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||
‘काले-गोरे’
सब तुम्हें, लगते एक समान |
‘कुरूप-सुन्दर’
से मिलो, जो भी धरता ‘ध्यान’ ||
देते
सबको ‘प्रेम’ तुम, ‘राजा’ हो या ‘रंक’ |
तुम
हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||१||
भक्त तुम्हारा सुधरता, हो कितना भी ‘नीच’ |
तुम दिखलाते ‘रास्ता’, ‘बीहड़ वन’ के बीच ||
‘कामी’ को ‘वैराग्य’ दे, ‘अज्ञानी’ को
‘ज्ञान’ |
‘अन्धे’ को तुम ‘नेत्र’ दे, करते हो ‘उत्थान’
||
कृपा
तुम्हारी ‘खग’ उड़े, ले कर ‘घायल पंख’ |
तुम
हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||२||
हो
‘जड़’ में ‘ऊर्जा’ तुम्हीं, हो ‘चेतन’ में ‘प्राण’ |
हर
‘बल’ में हो ‘शक्ति’ तुम, हो ‘पीड़ित’ के ‘त्राण’ ||
‘धातु’-‘काठ’
या ‘मृदा’ का, हो कैसा भी ‘साज़’ |
‘थाप’,
‘साँस’ या ‘चोट’ से, तुम बनते ‘आवाज़’ ||
‘वंशी’
सूखे ‘बाँस’ की, या कोई ‘मृत शंख’ |
तुम
हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||३||
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