(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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गहन ‘शेष-शय्या-शयन’, से जग, ‘जग’ लख आज
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पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो
‘अखिल समाज’ !!
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‘सदाचार
के वन’ जले, ‘तम; की लागी ‘आग’ |
बचें कहाँ
‘सत्’ और ‘राज’, होंती ‘भागमभाग’ ||
प्रबल
‘काम’ की ‘वासना’, है मानो ‘बीमार’ |
‘शील-कबूतर’
देख कर, टपकाती हैं ‘लार’ ||
‘दुराचार’ के उड़ रहे, ‘बाज’ न आते बाज़ |
पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो
‘अखिल समाज’ !!१!!
‘राम’-‘कृष्ण’ या ‘बुद्ध’ के, या ‘ईसा’ के ‘लाल’ |
‘मुहम्मदी’ या ‘नानकी’, सब पर उठे ‘सवाल’ ||
‘धर्म’ के सच्ची ‘अर्थ’ का, होता घोर ‘अनर्थ’ |
‘आडम्बर-पाखण्ड’ में,उलझे हैं ‘हम’ व्यर्थ ||
सभी ‘त्याग’ को छोड़ कर, करना चाहें
‘राज’ |
पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो
‘अखिल समाज’ !!२!!
‘मान’ और ‘पद’ उच्च हैं, किन्तु ‘कर्म’
से ‘नीच’ |
‘ऊँचे’ उठे ‘खजूर’ कुछ, ‘कदली-वन’ के
बीच ||
‘कालयवन’
कुछ ‘पौण्ड्रक’, बने ‘लक्ष्मी-कन्त’ |
‘अधर्म’
करते फिर रहे, हैं कुछ ‘धनी महन्त’ ||
‘लाज’ रूप ‘धन’ लूटते, इन्हें न आती
‘लाज’ |
पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो ‘अखिल
समाज’ !!३!!
सुंदर !
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