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गुरुवार, 16 जनवरी 2014

नयी करवट(दोहा-ग़ज़लों पर एक काव्य) (१)(सब का यार)

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

  (च)सुख का होम |
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‘पिया’ नहीं मिलता तुझे, क्यों होता है खिन्न |
मिलेगा पल में तुझे, हो कर देख ‘अभिन्न’ ||
बिन श्रद्धा क्या करेंगे, ‘हवन-कुण्ड’ के ‘दाह’ |
होम करो हर ‘सुख’, तभी, होगा ‘यार’ प्रसन्न ||



‘नाम-दुपट्टे’ ओढ़ कर, घूमो जड़ कर ‘छाप’ |
बिना ‘प्यार’ के हैं वृथा, सभी ‘भक्ति के चिन्ह’ ||
नाच, कैफ कर,झूम तू, चाहे कपड़े फाड़ |
व्यर्थ, ‘हृदय’ में यदि नहीं, हुआ ‘प्रेम’ उत्पन्न ||





‘तीर्थ’,’व्रत’, ‘जप’,’तप’ सभी, निश्चय होंगे व्यर्थ |
पल भर ‘अपने यार’ से, होता यदि न ‘अनन्य’ ||
महके “प्रसून”में अगर, सच्ची ‘प्रीति-सुगन्ध’ |
बिना ‘जोग-वैराग्य’ के, वह हो जाये ‘धन्य’ ||
  

 

(छ)तेरी तलाश |
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तुझ से किस का हो सका, सरल कभी ‘संयोग’ ?? तलाश तेरी कर रहे, तरह तरह से लोग |
कुछ मुंडवाते शीश कुछ, कुछ के लम्बे केश |
कुछ लेते सन्यास हैं, कुछ लेते हैं ‘जोग’ ||
तरह तरह के धारते, ‘रंग-विरंगे वेश’ |
बिन श्रद्धा, बिन आस्था, लगते ‘कोरे ढोंग’ ||


चिलम चढ़ाते कुछ, कई, पीते ‘घोटा-भंग’ |
पता नहीं ये भक्त या, लगा इन्हें कुछ ‘रोग’ ||
कहते हैं कुछ ‘हरी-हर’, के हैं सच्चे भक्त |
रवड़ी-पूड़ी-खीर का, खूब लगाते ‘भोग’ ||
“प्रसून”, ‘सच्चे प्यार’ की, अगर नहीं है ‘भूख’ |
तो उस से ‘संलग्नता’ के हैं व्यर्थ ‘प्रयोग’ || 

     

    

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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