घोर निराशा को तजे, ‘आम आदमी’ आज |
‘आशा-सज्जा’ से सजे, ‘आम आदमी’ आज ||
छोड़े ‘पूँजी-वाद’ को, ‘जाति-वाद’ को छोड़ |
ले ‘आज़ादी’ के मज़े, ‘आम आदमी’ आज ||
करने लगा ‘प्रकाश’ कुछ, बन कर ‘तम’ में ‘दीप’ |
किसी ‘हवा’ से मत बुझे, ‘आम आदमी’ आज ||
छाया ‘सन्नाटा’ हटा, गूँज उठी ‘आवाज’ |
क्योंकि ‘बिगुल’ बन कर बजे, ‘आम आदमी’ आज ||
निखरे ‘सोने’ से खरे,हटी मलिन हर ‘पर्त’ |
‘अग्नि-प्रेरणा’ से मँजे, ‘आम आदमी’ आज ||
छँटी उदासी ‘आप’ की, मन में खिले “प्रसून” |
अच्छे लगते फिर मुझे, ‘आम आदमी’ आज ||
आम आदमी खुश हुआ, सत्य हो रहे स्वप्न |
जवाब देंहटाएंआम आदमी का भला, मिला केजरी रत्न ||
बहुत सुन्दर प्रिय हो गया आम आदमी आज
जवाब देंहटाएंअँधेरे में दीप जलाया आम आदमी आज |
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सुंदर !
जवाब देंहटाएंवाह ! भाई साहब बेहतरीन अंदाज़ की रचना है। रूपक है सशक्त भावनाओं का। शुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और प्रभावी प्रस्तुति...
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