सारे चित्र 'गूगल-खोज से साभार |
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बिना
खाद-पानी मिटे, हैं खुशियों के फूल |
देखो
कितनी खल रही, हमें हमारी भूल !!
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यह आबादी देश की, बनी हुई अभिशाप |
‘अभाव’ से पीड़ित हुई, उगल रही है
‘पाप’ ||
सुखदायी होंती नहीं,
‘जनसंख्या-स्फीति’ |
इससे घटने लगी अब, है ‘आपस की प्रीति’
||
सम्बन्धों
के बाग में, उगने लगे ‘बबूल’ |
देखो
कितनी खल रही, हमें हमारी भूल !!१!!
महँगी हैं सब सब्ज़ियाँ, महंगे आटा-डाल |
पैसे वाले भी दुखी, क्या खायें कंगाल ??
महँगे लकड़ी-कोयला, औ मिट्टी का तेल |
महँगा हर ईंधन हुआ, रहे सव्भी दुःख झेल ||
चिंताओं
से हो रहे, सारे सुख निर्मूल |
देखो
कितनी खल रही, हमें हमारी भूल !!२!!
“प्रसून” बागों में नहीं, ‘काँटे’ हैं भरपूर |
‘भँवरे-तितली’ प्यार के, चैन-अमन से दूर ||
जहाँ-तहाँ मुरझा गयी, ‘आशाओं की बेल’ |
बड़ा घिनौना झेलती, यह ‘आबादी’ खेल ||
‘सुविधाओं
की पत्तियों’, पर है ‘दुविधा-धूल’ |
देखो कितनी खल रही, हमें हमारी भूल !!३!!
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बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
जवाब देंहटाएंभाव और अर्थ सौंदर्य लिए अपने परिवेश का बोध लिए बढ़िया दोहावली
(सुखदायी होंती(होती ) नहीं, ‘जनसंख्या-स्फीति’ |
इससे घटने लगी अब, है ‘आपस की प्रीति’
अनुनासिक नहीं है होती।
महँगे लकड़ी-कोयला, औ मिट्टी का तेल |
महँगा हर ईंधन हुआ, रहे सव्भी(सभी ) दुःख झेल ||