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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

पौण्ड्रक (३)धर्म-माफ़िया | एक अभिधा-रचना

वर्तमान में जो कुछ हो रहा है, अखबारों में जो कुछ पढने को

मिल रहा है, टी.वी. में जो कुछ देखने को मिल रहा हैं, उस मन में

आक्रोश की अतिरेकता के कारण सीधे सीधे अभिधा में बात कहने

की अभिलाषा को रोक न सका | इस दशक में कुछ नये प्रकार के

'माफ़ियाओं के घिनौने चेहरे देखने को मिले हैं उन में यौन-दानवों 

के चेहरे सब से असहनीय हैं | 

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


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कई ‘माफ़िया’ धर्म के, करते घोर ‘अधर्म’ |
‘लज्जा-वसन’ उतार के, जिन्हें न आती शर्म ||
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कई ‘आश्रम’ खुल गये, जहाँ पनपते ‘पाप’ |
‘बैनर’ लगे हैं ‘शान्ति’ के, हैं ‘भीतर’ ‘संताप’ ||
कई ‘आश्रम’ चलाते, ‘शिक्षा की दूकान’ |
जिनमें ‘ऊँची फ़ीस’ में, मिलता ‘महँगा ज्ञान’ ||
कुछ ‘गुरु कुल-पति’ कर रहे, इन में ‘मलिन अकर्म’ |
कई ‘माफ़िया’ धर्म के, करते घोर ‘अधर्म’ ||१||


इन के ‘चेले-चेलियाँ’, हुये हैं मानो ‘दास’ |
ये ‘पामर’ अनुगतों का, छलते हैं ‘विशवास’ ||
श्रद्धा-नत ‘शिष्याओं’ का, घूरें ‘सुन्दर रूप’ |
‘गुरुता’ इन की पोसती, है मन में ‘विद्रूप’ ||
आत्मा तक पहुँचें नहीं, तकते ‘उजले चर्म’ |
कई ‘माफ़िया’ धर्म के, करते घोर ‘अधर्म’ ||२||


इनकी ‘जीवन-पुस्तिका’, में हैं ‘पाप के पृष्ठ’ |
‘दुराचार की कलम’ से, लिखे ‘कथानक भ्रष्ट’ ||
“प्रसून”, पाखण्डी ‘गुरु’, ‘चेले’, ‘अन्धे भक्त’ |
मन में ‘दूषित राग’ हैं, ‘लेबल’ लगा- ‘विरक्त’ ||
‘मानवता के धर्म’ का, ये क्या जाने मर्म |
कई ‘माफ़िया’ धर्म के, करते घोर ‘अधर्म’ ||३||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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