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गुरुवार, 5 सितंबर 2013

पौण्ड्रक (२) विषफल |

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‘भारतीयता’ की मिटी, तुझसे जग में ‘साख’ !
तू निकला ‘विषफल’ जिसे, समझा ‘मीठा दाख’ !!


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दुनियाँ में ज़ाहिर हुई, है ‘काली करतूत’ |
‘गहराई’ में दबे थे, पाप के तेरे सबूत ||
बड़े घिनौने थे सभी, तेरे पाप अकूत |
निगले ‘कड़वे फल’ समझ, कर ‘मीठे शहतूत’ ||
‘शुक्ल-पक्ष’ को कर दिया, है ‘अँधियारा पाख’ |
तू निकला ‘विषफल’ जिसे, समझा ‘मीठा दाख’ !!१!!


लगता था ‘गलमाल’ तू, निकला ‘विषधर नाग’ |
बाहर ‘उजला हंस’ तू, भीतर ‘’काला काग’ ||
तेरे मन में ‘काम’ की, गयी ‘कामना’ जाग |
जला के तूने ‘वासना, की अनियंत्रित आग’ ||
‘नारी के सम्मान’ को, किया जला कर ‘राख’ |
तू निकला ‘विषफल’ जिसे, समझा ‘मीठा दाख’ !!२!!


‘प्रसून” श्रद्धा-आस्था, के हो गये मलीन |
‘भक्ति के भँवरे’ देख तू, शंकाओं में लीन ||
‘कपट-तपस्वी’ कुटिल तू, तेरा थोथा ज्ञान |
तन्त्र-मंत्र सब खोखले, बचा दम्भ- अभिमान ||
अपने ‘कुकर्म’ का ‘कुफल’, अब तू खुद ही चाख !
तू निकला ‘विषफल’ जिसे, समझा ‘मीठा दाख’ !!३!!
दाख=अंगूर |


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3 टिप्‍पणियां:

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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