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रविवार, 25 अगस्त 2013

जय कन्हैया लाल की ! (कुछ सामयिक शर्मनाक घटनाओं पर आधारित व्याजोक्तियाँ ) (ख)आओ मिल कर ज़ोर से बोलें !

कृष्ण कन्हैया के जन्म की अग्रिम वधाई ! हर एक कृष्ण बकान सकतास है यदि अपने मन को पूर्णतया निर्लिप्त कर ले |बिना निर्लिप्सा कोई कैसे अपने को भगवान/ईश्वर /व्रह्म/खुदा घोषित कर सकता है | यदि करता है तो घोर पाप ही पनपेगा ||


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आओ मिल कर ज़ोर से बोलें ‘जय कन्हैया लाल की’ !
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‘सुन्दरियों के रूप के रसिया’, करने बैठे ‘साधना’ |
‘राम्भाओं’ को सम्मोहन में चाह रहे ये बाँधना ||
‘काम-वासना-मोह’ में उलझी है इन की ‘आराधना’ |
‘पाखण्डी बगुलों के जैसी इन की राक्ही ‘उपासना’ ||
शंकाओं से घिरी हैं देखो, डरीं ‘मछलियाँ’ ताल की !
आओ मिल कर ज़ोर से बोलें, ‘जय कन्हैया लाल की’ !!१!!
‘अन्तर-नयन’ करे जो अन्धे, दम इनके ‘अंजन’ में है |
पर ईश्वर से भी बढ़ कर के पूजते ये जन- जन में हैं ||
‘भक्ति’ से अधिक मज़ा तो इन को, आता देखो ‘धन’ में है !
क़दम-क़दम पर बहके हैं ये, कितना खोट ‘लगन’ में है !!
बोलो थाह किसी ने पाई, कब इन के ‘आमाल’ की ?
आओ मिल कर ज़ोर से बोलें, ‘जय कन्हैया लाल की’ !!२!!

‘कनफुक्के गुरुओं के गुरुडम’ जहाँ तहाँ छल करते हैं |
इन के ‘थोथे उपदेशों’ पर ‘ज्ञान के प्यासे मरते हैं ||
ऊँचे ‘महल-दुमहलों’ में ये, रहते जेबें भरते हैं |
तोड़ के नाता ये ‘धरती’ से, ‘आसमान’ में उड़ते हैं ||
सब से कहते फिरते हैं ये, ‘खबर है हमें त्रिकाल की’ |
आओ मिल कर ज़ोर से बोलें, ‘जय कन्हैया लाल की’ !!३!!


‘चेलों और चेलियों’ से ये’, रहते हर दम घिरे हुये |
ऊँचे उठे हैं ‘मीनारों’ से, आचरणों से गिरे हुये ||
भरे ‘वासना’ ‘ज्ञान की गुदड़ी’ में, कितने ‘सिरफिरे’ हुये ?
‘रत्न’ ‘पत्थरों’ को समझे हैं, ये ‘अविवेकी’ निरे हुये ||
‘सार-हीन व्यवहार’ घमण्डी, ‘बातें बड़े कमाल की |
आओ मिल कर ज़ोर से बोलें, ‘जय कन्हैया लाल की’ !!४!!

जिस ‘थाली’ में खाते है ये, ‘छेद’ उसी में करते हैं |   
‘प्रवचन’ करते सभा में बैठे, ‘चाँद से चेहरे’ तकते हैं ||
‘काम-वासना के पंखों’ से, ‘बड़ी उड़ानें’ भरते हैं |
यदि ‘अवसर’ मिल जाये, ‘सीमा’ तोड़ के आगे बढ़ते हैं ||
ते ‘कहाँर’ हैं ऐसे लूटा’,  करते हैं जो ‘पालकी’ |
आओ मिल कर ज़ोर से बोलें, ‘जय कन्हैया लाल की’ !!५!!

‘जरासन्ध’ हैं इन में थोड़े, और ‘बकासुर’ थोड़े से |
अपने को बतलाते ‘शिव’ जो, हैं ‘भस्मासुर’ थोड़े से ||
नहीं अघाते ‘माल’ लूट कर, बने ‘अघासुर’  थोड़े से |
‘पाप का शंख’ फूकते फिरते, हैं ‘शंखासुर’ थोड़े से ||
“प्रसून” इन्हें मिटायें आकार, इच्छा ‘मदन गोपाल’ की |
आओ मिल कर ज़ोर से बोलें, ‘जय कन्हैया लाल की’ !!६!!


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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